पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने गुजारा भत्ता मामले पर सुनवाई करते हुए कहा था कि आजकल रिश्तों में इतनी खटास बढ़ गई है कि पति-पत्नी सार्वजनिक तौर पर भी एक-दूसरे का अपमान करने से नहीं चूकते हैं। वे सारी हदें पार कर जाते हैं। अफसोस की बात है कि ऐसे मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं।
अदालत का यह विचार बहुत सही नजर आता है। देखा गया है कि बहुत ही मामूली बातों पर पति-पत्नी एक-दूसरे से लड़ने लगते हैं। भला-बुरा कहने लगते हैं। मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। पहले जहां पति पत्नी को पीटने में अपनी शान समझते थे, अब पत्नियां भी पीछे नहीं रहतीं। कितने ही ऐसे वीडियो देखने में आए हैं, जहां शादी के अवसर पर जयमाला के वक्त, होने वाली पत्नी होने वाले पति को पीट रही है, पति अपनी पत्नी को। यों कहने को हम अहिंसा वाले देश में रहते हैं। इसके अलावा मीडिया का एक वर्ग पीटने वाली लड़कियों को किसी वीरांगना की तरह दिखाता है। कई साल पहले हिसार में हुआ केस तो आपको याद होगा। जहां दो बहनों ने बस में लड़कों को पीटा था। उन्हें रातोंरात लक्ष्मीबाई बना दिया गया था। बाद में पता चला था कि वे लड़कियां अक्सर ही ऐसा करती हैं और वीडियो बनवाती हैं। लड़कियां अपने प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार करें, यह तो ठीक है, मगर वे पुरुषों को पीटने में ही अपनी वीरता देखने लगें, यह कहां तक जायज है। यदि पुरुष का महिला को पीटना, हिंसक होना गलत है, तो स्त्री का इस तरह से पीटना और प्रकारांतर से पुरुषों की नकल करना भी ठीक नहीं है। पुरुषों की जिस बात से महिलाओं को हमेशा परेशानी रही है, जिन आफतों को झेला है, उन्हीं की नकल क्यों की जाए। कोई कहेगा तो क्या हर तरह के अत्याचार को यूं ही सहते रहें। प्रतिकार न करें। कौन कहता है कि ऐसा न करें, लेकिन अगर कोई रिश्ता न चल रहा हो तो उससे अलग हुआ जा सकता है, उसमें मारपीट और सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के अपमान की तो कोई जरूरत नहीं। इसके अलावा किसी का अपमान या रिश्तों में टूटन सिर्फ हिंसा के कारण ही नहीं हो रहे हैं।
ऐसे मामले आपने भी पढ़े होंगे कि स्त्री-पुरुष दोनों लम्बे समय से रिश्ते में थे, मगर शादी के बाद शादी कुछ महीने भी नहीं चली। ऐसी क्या बात हुई जो इतने सालों तक पता नहीं चली और शादी होते ही इतनी बड़ी बन गई कि अलग होने की नौबत आ गई। इतना ही नहीं, हनीमून से लौटते ही तलाक की अर्जी लगा दी जाती है। किसी ने किसी को जन्मदिन की शुभकामनाएं नहीं दीं, पालतू जानवर की उपेक्षा की, पसंद का खाना नहीं खिलाया, घूमने-फिरने नहीं जा सके, इस बात पर भी तलाक के मामले बढ़े हैं। कुछ साल पहले अकेले दिल्ली शहर में तलाक के बारह हजार मामले लम्बित थे। सोचिए कि पूरे देश में कितने होंगे। ये लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। शादी जैसा बड़ा फैसला लेने से पहले इस बात पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए कि अगर शादी को कुछ महीने में ही टूटना है, तो उसका होने का भी कोई फायदा नहीं। क्यों दोनों पक्षों के लोग परेशान हों। क्यों इतना पैसा खर्च हो। आज के दौर में जब शादी को धूमधाम से करने का दिखावा बहुत बढ़ चला है, उसमें दस-बीस लाख खर्च हो जाना मामूली बात है।
पहले बहुत से लोग बच्चों के कारण रिश्ते को निभाते थे। अब ऐसा नहीं रहा। बच्चों के बावजूद रिश्ते टूट जाते हैं। बने भी रहते हैं तो बेहद कलह से भरे। पिछले दिनों एक ऐसी ही खबर आई थी, जिसमें एक बच्चा अपने माता-पिता की लड़ाई से इतना परेशान हुआ कि डिप्रेशन में चला गया। उसके इलाज के दौरान उसकी काउंसलिंग की गई। तब उसने बताया कि वह अपने माता-पिता की लड़ाई से तंग आ चुका था। वह इतना परेशान था कि उन्हें मार डालना चाहता था। माता-पिता को जब यह बताया गया तो वे हैरान रह गए। उन्होंने अपनी गलती मानी और कहा कि अब बच्चे की खातिर वे कभी नहीं लड़ेंगे। माता-पिता के संबंधों में कड़वाहट, एक-दूसरे का अपमान करने, बदले की भावना से बच्चों का जीवन कितना दूभर होता होगा। जब ये रिश्ता टूट जाता होगा तो उन पर क्या गुजरती होगी। बताया जाता है कि जो बच्चे माता-पिता को लड़ते और अलग होते देखते हैं, उन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। कई बार वे जिंदगी भर उस दुःख और परेशानी से नहीं उबर पाते।
सच यह है कि इन दिनों यह कोई सिखाता ही नहीं कि मामूली बातों को बातचीत से सुलझाया जा सकता है। एक-दूसरे की देखभाल से, समझदारी से आखिर ऐसी कौन-सी बात है जो सुलझाई न जा सके। लेकिन इन दिनों जोर इस बात पर ज्यादा है कि फौरन के फौरन हिसाब-किताब बराबर कर लें। मारपीट करें, पुलिस के पास जाएं और कोर्ट तक मामला पहुंचाएं। जबकि अपने देश में ये सारी बातें इतनी आसान भी नहीं हैं।
बात से बात बढ़ती है और एक चुप सौ को हराती है, इस कहावत को हम भूल गए हैं। हमारे युवाओं को तो जैसे यह मालूम ही नहीं है। उनके लिए जीवन भी जैसे टू मिनट नूडल की तरह हो चला है। हर बात का फैसला अभी के अभी करना है। जबकि कई बार होता यह है कि अभी जो बात बहुत बड़ी लग रही थी, कुछ दिनों बाद वह बहुत मामूली लगने लगती है। लेकिन एक बार जो बात बढ़ती है तो बढ़ती ही चली जाती है। कोई किसी से कम नहीं दिखना चाहता, न चुप रहना चाहता है। अगर अभी नहीं तो कभी नहीं। इसी भावना से कई बार अच्छे-बुरे का भी ध्यान नहीं रहता और बात बिगड़ती चली जाती है। जरा ठहरिए, सोचिए कि जब बड़े से बड़े विश्वयुद्ध के बाद अंत में समझौते करने पड़ते हैं, तो एक जीवन को चलाने के लिए ऐसा क्यों नहीं हो सकता। क्योंकि जीवन है तभी तक सब कुछ है, रिश्ते-नाते, हंसी-खुशी, मान-अपमान है। बेहतर है कि जीवन खूबसूरत बने। वहां एक-दूसरे का सम्मान हो, न कि हर वक्त की तू-तू, मैं-मैं और कीचड़ की बरसात।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।