राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि जन सुराज को 5–7 प्रतिशत वोट भी मिलते हैं, तो दर्जनों सीटों के नतीजे बदल सकते हैं। एक ब्राह्मण नेता के रूप में किशोर भाजपा के सवर्ण आधार और नीतीश सरकार से नाराज़ गैर-यादव पिछड़ों को अपनी ओर खींच सकते हैं। लालू-नीतीश युग को ‘भ्रष्ट दुर्गंध’ बताकर तेजस्वी यादव के युवा समर्थक वर्ग में सेंध लगा सकते हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार राज्य की राजनीति में एक नया चेहरा जुड़ गया है—प्रशांत किशोर। वह व्यक्ति, जिन्होंने कभी नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे नेताओं की चुनावी रणनीति तैयार की थी, अब खुद मैदान में हैं। उनकी ‘जन सुराज यात्रा’ और पूरे राज्य में सक्रिय अभियान ने पारंपरिक दो ध्रुवों—एनडीए और महागठबंधन—के बीच तीसरे विकल्प की संभावना को जन्म दिया है।
इस चुनाव में प्रशांत किशोर की प्रासंगिकता दो वजहों से अहम है। एक, तो वह जाति-आधारित राजनीति से आगे बढ़कर सुशासन और पारदर्शिता की नई भाषा बोल रहे हैं। दूसरा, वह उस मतदाता वर्ग को संबोधित कर रहे हैं, जो बीते 35 वर्षों के लालू-नीतीश युग से ऊब चुका है। उनकी छवि ‘बाहरी सुधारक’ की है, जो राजनीति में पेशेवर दृष्टिकोण और नैतिकता लाने का दावा करते हैं।
लगभग 665 दिनों की पदयात्रा में उन्होंने गांवों में लोगों से संवाद किया। इस यात्रा से यह भी साफ़ हुआ कि राज्य की राजनीति केवल तकनीकी या प्रबंधन आधारित नहीं है—यहां भरोसा, जातीय समीकरण और स्थानीय नेटवर्क निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
किशोर की सबसे बड़ी शक्ति उनकी ‘बाहरी’ और ‘साफ़ छवि’ है। वह न तो किसी परिवार के उत्तराधिकारी हैं और न ही किसी जातीय गुट के प्रतिनिधि। उनका नारा ‘अपने बच्चों के भविष्य के लिए वोट करें’ नौजवान और मध्यवर्गीय मतदाताओं को सीधा संदेश देता है। बेरोज़गारी, पलायन और भ्रष्टाचार से तंग युवाओं को उनमें एक नया विकल्प दिखता है। उनका प्रचार बड़े जलसों की बजाय युवाओं के क्लब, डिजिटल ट्रेनिंग, छात्रवृत्ति योजनाएं और सोशल मीडिया के माध्यम से संवाद करता है। उनकी कार्यशैली ‘जनसंपर्क और डेटा’ का मिश्रण है, जिसमें आदर्शवाद और दक्षता दोनों की झलक मिलती है।
नीतीश कुमार की बार-बार की राजनीतिक पलटियों और राजद की पारिवारिक छवि से ऊबे मतदाताओं को किशोर एक वैकल्पिक नैतिकता का अहसास कराते हैं। उनकी राजनीति की सीमाएं भी स्पष्ट हैं। लेकिन ‘जन सुराज’ की पहचान तो बन गई है, मगर संगठनात्मक ढांचा अभी कमजोर है। उनका ‘बिहारीपन से परे’ संदेश—‘बकैत संस्कृति छोड़ो, उत्पादक बनो’—ग्रामीण समाज के लिए कुछ हद तक अहंकारपूर्ण भी लग सकता है। बिहार की राजनीति में आत्मीयता, पहुंच और रिश्ते अधिक मायने रखते हैं। इसके अलावा, दोनों गठबंधनों पर समान रूप से हमला करने से उनका राजनीतिक संदेश कभी-कभी धुंधला पड़ जाता है। ‘सत्ता या सड़क’ का नारा साहसिक है, पर यथार्थ से दूर भी दिख सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि जन सुराज को 5–7 प्रतिशत वोट भी मिलते हैं, तो दर्जनों सीटों के नतीजे बदल सकते हैं। एक ब्राह्मण नेता के रूप में किशोर भाजपा के सवर्ण आधार और नीतीश सरकार से नाराज़ गैर-यादव पिछड़ों को अपनी ओर खींच सकते हैं। लालू-नीतीश युग को ‘भ्रष्ट दुर्गंध’ बताकर तेजस्वी यादव के युवा समर्थक वर्ग में सेंध लगा सकते हैं।
वर्ष 2020 के चुनाव में दोनों गठबंधनों के वोट प्रतिशत में 1 प्रतिशत से भी कम का अंतर था। ऐसे में किशोर की मामूली बढ़त भी पूरे समीकरण को हिला सकती है।
यदि परिणाम त्रिशंकु विधानसभा की ओर जाते हैं, तो किशोर ‘किंगमेकर’ की भूमिका में आ सकते हैं। हालांकि उन्होंने स्वयं कहा है कि वह ‘या तो सरकार में होंगे या सड़क पर’, परन्तु राजनीतिक परिस्थितियां कुछ और कहती हैं।
अगर जन सुराज को 10–15 सीटें भी मिलती हैं, तो किसी गठबंधन की सरकार बनाने में उनकी भूमिका निर्णायक हो सकती है। उन्होंने दोनों प्रमुख दलों को अपनी कार्यशैली, प्रचार और युवा नीति पर पुनर्विचार करने को विवश किया है।
एनडीए के लिए वह नैतिक चुनौती हैं; नीतीश कुमार की विश्वसनीयता पर उन्होंने सवाल उठाए हैं और भाजपा के स्थानीय नेतृत्व को भ्रष्टाचार के घेरे में ला दिया है। महागठबंधन के लिए वह शहरी, शिक्षित और बेरोज़गार युवाओं को खींच रहे हैं, जिन्हें तेजस्वी यादव अपना स्वाभाविक समर्थक मानते हैं। इस स्थिति में जन सुराज ‘स्पॉइलर’ की भूमिका निभा सकता है — किसी को सत्ता से वंचित और किसी को अप्रत्याशित राहत दे सकता है।
हाल ही में किशोर ने एनडीए नेताओं, ख़ासकर उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर राजनीतिक हलचल मचा दी। इस कदम के राजनीतिक परिणाम मिले-जुले हैं। जनता के बीच उनकी विश्वसनीयता बढ़ी है, लेकिन सियासी गलियारों में उन्होंने लगभग सभी दरवाज़े बंद कर दिए हैं। एनडीए ने उन्हें ‘अवसरवादी’ करार दिया है, जबकि राजद खेमे में यह डर है कि उनका स्वच्छ छवि वाला अभियान युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकता है।
बिहार की राजनीति हमेशा प्रयोगों की भूमि रही है। लालू प्रसाद ने सम्मान की राजनीति की, नीतीश कुमार ने विकास की राजनीति की बात की। अब किशोर सुशासन और ईमानदारी की भाषा लेकर आए हैं। यह प्रयोग तभी टिकेगा जब वह सामाजिक धरातल पर भी जड़ें जमा सकें—जाति, समुदाय और संस्कृति की हकीकत से जुड़े बिना कोई तकनीकी क्रांति स्थायी नहीं होती। फिर भी, यह निर्विवाद है कि प्रशांत किशोर ने चर्चा का एजेंडा बदल दिया है।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

