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आत्मा पर मरहम-सा असरकारी प्रायश्चित

अंतर्मन

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सीताराम गुप्ता

प्रेमचंद ने कहा है कि पश्चाताप के कड़वे फल कभी न कभी सभी को चखने पड़ते हैं। पश्चाताप या पछताना वह मानसिक पीड़ा अथवा चिंता की स्थिति है जो किसी अनुचित काम को करने के उपरांत उसके भयंकर परिणाम या अनौचित्य का ध्यान करके अथवा किसी उचित या उपयोगी कार्य को न करने के कारण उत्पन्न होती है। पश्चाताप एक तरह से अपनी गलती की स्वीकृति की तरह होता है और जब तक हम उस गलती को सुधार नहीं लेते हमें चैन नहीं मिलता। और उस सुधार का नाम है प्रायश्चित। पश्चाताप एक तरह से निदान अथवा डायग्नोसिस होता है और प्रायश्चित उपचार की तरह। शास्त्रों के अनुसार प्रायश्चित वह कार्य अथवा प्रक्रिया है जिसके करने से मनुष्य पाप अथवा अधर्म से छूट जाता है। पाप और पुण्य दोनों हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। सरल शब्दों में, दूसरों को किसी भी रूप में पीड़ा या कष्ट पहुंचाना ही वास्तव में पाप है और ऐसे किसी भी पाप का परिमार्जन ही प्रायश्चित है।

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पश्चाताप के कड़वे फल सभी को कभी न कभी चखने पड़ते हैं। मनुष्य गलतियों का पुतला है। अतः गलतियां होना अथवा दूसरों को पीड़ा पहुंचाना स्वाभाविक है। गलतियां होंगी तो कम से कम अच्छे लोगों को पश्चाताप भी होगा ही। यदि हम पश्चाताप की आग में जलते रहते हैं लेकिन उसके प्रायश्चित अथवा परिमार्जन के लिए कुछ नहीं करते तो ऐसा पश्चाताप मात्र ढोंग होगा। यदि हम किसी को पीड़ा पहुंचाते हैं, किसी का आर्थिक शोषण करते हैं अथवा हमारी वजह से किसी का जीवन समाप्त हो जाता है तो ऐसी अवस्था में राज्य का कानून अपना काम करेगा। ये सजा और जुर्माना प्रायश्चित नहीं कहा जा सकता। किसी भी अपराध अथवा गलती के लिए जब हम स्वयं को दंड देते हैं और भविष्य में वैसा कार्य न करने का संकल्प लेते और निभाते हैं तभी प्रायश्चित पूर्ण होता है।

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प्रायश्चित वास्तव में एक उपचार प्रक्रिया है जिससे हम पश्चाताप की पीड़ा के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। वास्तविक प्रायश्चित एक विशुद्ध मानसिक प्रक्रिया है। जब तक हम अपनी गलती नहीं स्वीकार करेंगे उसका सुधार करने की ओर कैसे अग्रसर होंगे? इसके लिए अनिवार्य है कि अपनी मानसिकता को ऐसी बनाएं जिससे भविष्य में कभी अधर्म अथवा अपराध न हों। हम हर छोटी से छोटी बात को देखें और जो भी गलत लगे उसे अपनी मन रूपी स्लेट से पौंछते रहें। जो सही प्रतीत हो उसे बार-बार लिखते रहें। प्रायश्चित वास्तव में एक सतत तपश्चर्या है। यदि हम इसे अपने जीवन में लागू नहीं करेंगे तो किसी दिन बड़ी गलती अवश्य कर बैठेंगे। सतत तपश्चर्या ही सबसे कठिन होती है लेकिन जो प्रायश्चित के मूल्य को जानते हैं वे सतत तपश्चर्या को जीवन में सबसे अधिक महत्व देते हैं क्योंकि किसी भयंकर भूल का पूर्ण प्रायश्चित संभव ही नहीं। यदि हमारी गलती की वजह से किसी की जीवनलीला समाप्त हो जाती है तो प्रायश्चित कैसे संभव है? हम किसी भी तरह से घटनाओं को वापस उसी अवस्था में नहीं ला सकते।

प्रायश्चित का अर्थ है समग्र उपचार अथवा होलिस्टिक हीलिंग। यदि हम गलती, अपराध, पाप अथवा अधर्म करते हैं तो बाह्य दंड पर्याप्त नहीं। जब हम उसे स्वीकार कर स्वयं भी अपने आपको दंड देते हैं तभी प्रायश्चित की प्रक्रिया पूर्ण होती है।

स्वयं को स्वयं कैसे दंड दें यह बहुत जटिल है। इसी जटिलता ने प्रायश्चित की प्रक्रिया को लूटतंत्र में बदल दिया है। वास्तविकता है कि हम अपराध करने के बावजूद कानून से बचने का भरसक प्रयास करते हैं। गलतियों को जस्टीफाई करने में लग जाते हैं। यदि हमसे कोई बड़ी गलती अथवा अपराध हो जाता है तो प्रायश्चित का पहला कदम उसे स्वीकार करना ही है। चर्च में पादरी के समक्ष अपने गुनाहों की स्वीकृति अथवा कंफेशन भी यही है। लेकिन मात्र अपराध स्वीकार करने से ही बात नहीं बनती। उस अपराध के दुष्प्रभाव को भी कम करना अनिवार्य है। यदि किसी का आर्थिक नुकसान हो जाता है तो उसकी क्षतिपूर्ति भी अनिवार्य है। लेकिन मात्र क्षतिपूर्ति भी प्रायश्चित नहीं। कई ऐसी स्थितियां होती हैं जिनकी क्षतिपूर्ति संभव ही नहीं।

आज जिसे हम प्रायश्चित कहते हैं वह वास्तव में आंशिक क्षतिपूर्ति मात्र है। इससे हमारा पाप न कम होता है, न मिटता है। पाप अपना प्रभाव छोड़ता है तो पुण्य भी अपना प्रभाव छोड़ता है। पाप के प्रभाव को नष्ट करने के लिए हम व्रत, दान अथवा कर्मकांड आदि जो उपाय करते हैं उससे हमारा पाप कभी नहीं मिट सकता लेकिन कुछ अच्छा करके हम संतुष्टि का अनुभव करते हैं। पाप के प्रभाव की स्वीकृति के कारण जो मानसिक पीड़ा होती है वह हमें चैन से नहीं बैठने देती इसीलिए हम अपने चैन की खातिर ही प्रायश्चित करने को विवश होते हैं। लेकिन हमें चैन नहीं मिल पाता क्योंकि हमारा प्रायश्चित नाममात्र का अथवा दिखावे के लिए होता है। हम प्रायः छोटी-छोटी घटनाओं के लिए प्रायश्चित करने का नाटक करते रहते हैं लेकिन जहां सही में प्रायश्चित करने की आवश्यकता होती है वहां चुप लगा जाते हैं। एक शे,र है : शब को मय ख़ूब सी पी सुबह को तौबा कर ली, रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।

प्रायः हमारा प्रायश्चित डर की वजह से होता है कि प्रायश्चित नहीं किया तो हमें मोक्ष प्राप्ति नहीं होगी, स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। दूसरे अधर्म अथवा अपराध करके अनुष्ठान, व्रत व दान कर रहे हैं। जिसका दिल दुखाया है या जिसके साथ कपट किया है उसे तो भूल ही गए। यदि प्रायश्चित नाम की कोई प्रक्रिया है तो यही है कि सजा भुगतने के साथ-साथ जिसके हृदय को जलाया है उसके हृदय पर मरहम लगाएं।

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