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नेताओं-अभिनेताओं के कुनबे में कुचलता हुनर

भारत के लोकतंत्र और फिल्म उद्योग में परिवारवाद इस कदर गहराया है कि सत्ता, अवसर और पहचान कुछ चुनिंदा परिवारों तक ही सीमित होकर रह गई है, जिससे आम जनता को बराबरी का हक नहीं मिल पाता। अपने देश में...

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चित्राांकन संदीप जोशी
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भारत के लोकतंत्र और फिल्म उद्योग में परिवारवाद इस कदर गहराया है कि सत्ता, अवसर और पहचान कुछ चुनिंदा परिवारों तक ही सीमित होकर रह गई है, जिससे आम जनता को बराबरी का हक नहीं मिल पाता।

अपने देश में लोकतंत्र है। इसे विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, लेकिन यहां अब भी सामंतवाद की जड़ें बेहद गहरी हैं। इसका उदाहरण राजनीतिक दलों को देखकर मिलता है। फिल्मी दुनिया, जो अपने को देश-काल की सीमाओं से परे बताती है, में भी ऐसा ही है।

अपने देश के अधिकांश राजनीतिक दलों की अगली पीढ़ी के रूप में नेताओं के बाल-बच्चे ही दिखाई देते हैं। पिता ही पुत्र का राजा की तरह राज्याभिषेक कर देते हैं। जिस तरह राजा की गद्दी उसके बेटे को ही मिलती थी, राजनीति में भी इसे बखूबी देखा जा सकता है। हां, कभी-कभार इसमें बेटियों, बहनों या पत्नियों को शामिल कर लिया जाता है। यानी कि हर हाल में सत्ता चाहिए। वह अपने बाद भी हमेशा बनी रहनी चाहिए। इसमें भी वारिस या उत्तराधिकार का नियम लागू है। बिहार के एक वरिष्ठ नेता, जो जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस विरोधी आंदोलन की नैया पर सवारी करते हुए, राजनीति के शिखर पर आए, ने एक बार कहा था कि यदि हम अपने बच्चों की मदद नहीं करेंगे, तो क्या हमारे बच्चे भीख मांगेंगे। इसी तरह एक बार बोले थे कि अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री न बनाएं, तो क्या तुम्हारी पत्नी को बनाएं। उत्तर प्रदेश की एक पार्टी के बाईस परिवार जन राजनीति में बताए जाते हैं। हाल ही में फेसबुक पर किसी ने लिखा था कि बिहार की राजनीति में अनेक दलों में परिवार के सत्ताईस प्रतिशत लोग हैं।

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अपने परिवारजनों को आगे बढ़ाने में कोई भी दल पीछे नहीं है। महाराष्ट्र से लेकर झारखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा बंगाल कहीं भी देख लीजिए। यानी कि बात तो आम जनता की होती है, लेकिन उसके प्रतिनिधित्व के नाम पर दलों के उच्च पद हमेशा परिवार जनों को ही मिलते हैं। ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि नेतृत्व देने की सारी क्षमता, सिर्फ राजनेताओं के परिवारों के पास ही होती है। दरअसल तो यह शक्तिपूजक देश है। एक बार जो ताकत का स्वाद चख लेता है, वह उसे कभी खोना नहीं चाहता। राजनीति से ज्यादा शक्ति भला और किसके पास हो सकती है। बात चाहे जितनी गरीबी और साधनहीनता की की जाए, बाय द पीपुल, फार द पीपुल, आफ द पीपुल की हो, हर बात पर लोकतंत्र और सबकी बराबरी का ढोल पीटा जाए, असली मकसद साधनों का बेहिसाब जुगाड़ ही होता है। वर्ना तो ऐसा कैसे होता है कि राजनीति में आते ही एकाएक लोगों की आर्थिक स्थिति छलांगें मारती आकाश छूने लगती है।

कहा ये जाता है कि ये सारी आर्थिक ताकत भी समर्थक जुटाते हैं। साइकिल पर चलते नेता जी अचानक मर्सिडीज और पोर्श में नजर आने लगते हैं। और जब यह हर तरह की बेशुमार ताकत एक बार मिल गई, तो भला कौन इसे जाने दे। लोगों के बीच वर्षों लगाकर, जो जगह बनाई उसे किसी बाहर वाले को क्योंकर हड़पने दिया जाए। इसलिए सबसे पहले अपने ही बाल-बच्चों, अन्य परिवारजनों का ख्याल आता है।

कहते हैं न कि घुटने हमेशा पेट की ओर ही मुड़ते हैं। हर चुनाव से पहले चुनावों और राजनीतिक प्रक्रिया में सुधार की बातें की जाने लगती हैं। मगर सुधार करने वाले भी तो वही होते हैं, कानून भी वही बनाते हैं, जिन्हें सुधरना है। आखिर वास्तविक लोकतंत्र चाहिए ही किसे। सत्ता, चाहे जैसे मिले, मिलनी चाहिए। इसे ही अंग्रेजी में नेपोटिज्म कहते हैं। जिसके मायने हैं कि अपने अधिकार का प्रयोग करके परिवार के सदस्यों को लाभ पहुंचाना। इसे ही भाई-भतीजावाद या कुनबापरस्ती कहते हैं।

इन दिनों लोगों के जीवन को दो ही चीजें सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं- राजनीति और चकाचौंध से भरी फिल्मी दुनिया। फिल्मी दुनिया में भी कुनबापरस्ती या नेपोटिज्म का बोलबाला है। अब वहां कोई मिठुन चक्रवर्ती या धर्मेंद्र नहीं मिलता। कंगना राणौत जैसी भी कोई-कोई ही होती हैं, जिन्होंने इस दुनिया में प्रवेश के लिए कठिन संघर्ष किया। एक आध नवाजुद्दीन सिद्दीकी हो तो हो। जिस तरफ देखो उधर अपने ही बच्चों का बोलबाला है। यदि इनसे इस बारे में पूछा जाए तो बहुत से कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। हमें भी बहुत पापड़ बेलने पड़े हैं। कुछ बेबाक होते हैं, तो प्रति सवाल करते हैं कि आखिर नेपोटिज्म कहां नहीं है। और अब तो इसी प्रकार की तीसरी पीढ़ी भी फिल्मों में जगह बना रही है।

उदाहरण के तौर पर राजकपूर की तीसरी पीढ़ी रणबीर कपूर, करिश्मा कपूर और करीना कपूर हैं। धर्मेंन्द्र की तीसरी पीढ़ी सनी दयोल के बेटे करन हैं। अमिताभ बच्चन की तीसरी पीढ़ी अगस्त्य नंदा हैं, जो उनकी बेटी श्वेता के बेटे हैं। ये बच्चे हैं जिनके मुंह में चांदी की चम्मच हमेशा रही है, इसीलिए अगर ध्यान से देखें तो इस दौर में अब गरीबी और संघर्ष की बातों के मुकाबले उच्च मध्यवर्ग और अमीरों की जीवन शैली दिखाने वाली फिल्में अधिक बनती हैं। करीना कपूर के बेटे तैमूर का जन्म जब हुआ था, तो लिखा गया था- ए स्टार इज बोर्न। इसी तरह की बातें अभिषेक- ऐश्वर्य की बेटी आराध्या के जन्म पर भी कही गई थीं।

फिल्मी दुनिया में कुनबापरस्ती की बात जिस अभिनेत्री ने जोर-शोर से उठाई थी, वह हैं कंगना रणौत। वह खुलेआम इस बात की आलोचना करती रही हैं। एक बार करन जौहर के कार्यक्रम- काफी विद करन में उन्होंने करन को ही नैपोटिज्म का एपीटोम कहा था। लेकिन वे लोग, जो इससे भारी संख्या में प्रभावित हैं, उन तक ने कंगना का साथ नहीं दिया था। उन्हें डर था कि फिल्मी दुनिया में इन कुनबों की इतनी ताकतवर लाबीज हैं कि उन्हें थोड़ा-बहुत जो काम मिलता है, वह भी बंद हो जाएगा। इस बारे में एक तर्क यह दिया जाता है कि यदि डाक्टर का बच्चा डाक्टर बन सकता है, इंजीनियर का बच्चा इंजीनियर बन सकता है, तो नेता का बच्चा नेता और अभिनेता का बच्चा अभिनेता क्यों नहीं बन सकता।

एक समय तक माडलिंग, फिल्मों से अलग व्यवसाय हुआ करता था। बहुत प्रसिद्ध माडल भी हुआ करते थे। लेकिन अब निन्यानवे प्रतिशत माडलिंग बड़े अभिनेता, अभिनेत्रियों और उनके बाल-बच्चों द्वारा ही की जाती है। बल्कि किसी भी अभिनेता-अभिनेत्री की सफलता का यह बड़ा पैमाना माना जाता है कि उसने कितने मशहूर ब्रांड्स का एडोर्समेंट किया है। विज्ञापन एजेंसियां भी अपने विज्ञापनों को हिट कराने के लिए किसी नए को क्यों जगह दें, जब कोई बड़ा नाम उन्हें मिल रहा हो।

फिल्मी दुनिया, जिसे हिंदी में रजतपट भी कहा जाता है, कोे बहुत से युवा लड़के-लड़कियां आदर्श मानते हैं। वे भी पर्दे पर जाकर रातोरात खुद को स्टार और सुपरस्टार कहलाना चाहते हैं। इसलिए आज भी लाखों की संख्या में लड़के-लड़कियां मुम्बई में अपना भाग्य आजमाने पहुंचते हैं। उन्हें लगता है कि यदि तकदीर ने साथ दिया तो उन्हें भी एक दिन चमकने का मौका मिलेगा। लेकिन अकसर ऐसा होता नहीं है। इनमें से बहुत से युवा फिर कभी अपने घर नहीं लौट पाते। लड़कियों की तो बात ही क्या लिखूं। उनमें से अधिकांश को जीवन में जितनी भी कालिखें हो सकती हैं, वे देखनी पड़ती हैं। फैशन फिल्म जैसी वास्तविकता, बहुत कम लड़कियों के साथ घटित होती है।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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