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आगे जाता आसियान और पीछे होता सार्क

दक्षिण एशिया का शुमार दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगने वाले राजनीतिक अड़ंगे। इस इलाके का सहयोग संगठन दक्षेस खामोश है। नवंबर, 2014 में काठमांडू...
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दक्षिण एशिया का शुमार दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगने वाले राजनीतिक अड़ंगे। इस इलाके का सहयोग संगठन दक्षेस खामोश है। नवंबर, 2014 में काठमांडू के शिखर सम्मेलन के बाद से उसका कोई सम्मेलन नहीं हुआ है।

हाल में दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया को लेकर दो तरह की खबरें मिली थीं, जिनसे दो तरह की प्रवृत्तियों के संकेत मिलते हैं। आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्चुअल तरीके से और विदेशमंत्री एस जयशंकर स्वयं उपस्थित हुए थे। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने कम्युनिटी विज़न 2045 को अपनाने के लिए आसियान की सराहना की। कम्युनिटी विज़न 2045 अगले बीस वर्षों में इस क्षेत्र को एक समेकित समन्वित विकास-क्षेत्र में तब्दील करने की योजना है।

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अपने आसपास के राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह ज़ाहिर होता जा रहा है कि भारत को पूर्व की दिशा में अपनी कनेक्टिविटी का तेजी से विस्तार करना होगा। यह विस्तार हो भी रहा है, पर म्यांमार की अस्थिरता और बांग्लादेश की अनिश्चित राजनीति के कारण कुछ सवाल खड़े हो रहे हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के पांच देशों (कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम) के साथ सांस्कृतिक और वाणिज्यिक संबंधों को बढ़ावा देने वाले ‘गंगा-मीकांग सहयोग कार्यक्रम’ में हमें तेजी लानी चाहिए।

अब उस दूसरी खबर की ओर आएं, जो इस सिलसिले में महत्वपूर्ण है। भारत के सरकारी स्वामित्व वाले भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) ने गत 22 अक्तूबर से अपने पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए बांग्लादेश से इंटरनेट बैंडविड्थ का आयात बंद कर दिया। इस कदम का सीधा असर पूर्वोत्तर की इंटरनेट कनेक्टिविटी पर पड़ेगा, जो अभी तक बांग्लादेश अखौरा बंदरगाह के माध्यम से आयातित बैंडविड्थ पर निर्भर थी।

यह फैसला अचानक नहीं हुआ है। पिछले साल दिसंबर में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने हसीना सरकार के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें भारत के पूर्वोत्तर को बैंडविड्थ की आपूर्ति के लिए बांग्लादेश को ट्रांज़िट प्वाइंट के रूप में उपयोग करने की अनुमति दी गई थी। बांग्लादेश टेलीकम्युनिकेशंस रेग्युलेटरी कमीशन (बीटीआरसी) का कहना था कि भारत को ट्रांज़िट पॉइंट देने से क्षेत्रीय इंटरनेट हब बनने की हमारी क्षमता कमज़ोर हो जाएगी।

भारत का पूर्वोत्तर पहले घरेलू फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क का उपयोग करके चेन्नई में समुद्री केबलों के माध्यम से सिंगापुर से जुड़ा हुआ था। चूंकि चेन्नई में लैंडिंग स्टेशन पूर्वोत्तर से लगभग 5,500 किमी दूर है, इसलिए इंटरनेट की गति पर असर पड़ता था।

बहरहाल अब भारत पूर्वोत्तर राज्यों में इंटरनेट कनेक्शन पूरी तरह से अपने फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क और नए सैटेलाइट सिस्टम के जरिए देगा। इसके लिए भारतनेट प्रोजेक्ट में बड़े सुधार किए गए हैं, जो भारत का अपना डिजिटल नेटवर्क है। साथ ही इसरो के हाई-स्पीड सैटेलाइट नेटवर्क को भी बेहतर तरीके से जोड़ा गया है। इन बदलावों की वजह से अब पूर्वोत्तर राज्यों को तेज और भरोसेमंद इंटरनेट मिलेगा, बिना किसी बाहरी देश पर निर्भरता जताए हुए। भारत और बांग्लादेश के बीच यह महत्वपूर्ण सहयोग था, जो दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी के महत्व को रेखांकित करता था। यह सहयोग भी एकतरफा नहीं था। भारत भी बांग्लादेश को बैंडविड्थ दे रहा है, जिसे बांग्लादेश अब कम करता जा रहा है। बांग्लादेश ने दूसरे देशों, जैसे सिंगापुर वगैरह से समुद्र में बिछे केबलों के मार्फत बैंडविड्थ आयात शुरू किया है। बात केवल यह नहीं है कि वे अपनी बैंडविड्थ को बढ़ा रहे हैं, महत्वपूर्ण है भारत की अनदेखी करना।

इस साल 5 अगस्त को बांग्लादेश में छात्रों के विद्रोह के बाद शेख हसीना की सरकार के पराभव का एक साल पूरा हो गया है। इस दौरान वहां की अंतरिम सरकार बड़े-बड़े फैसले कर रही है, जिनमें कनेक्टिविटी, व्यापार और यहां तक कि रक्षा से जुड़े विषय भी शामिल हैं। हालांकि वहां अगले साल फरवरी में चुनाव कराने की घोषणा की गई है, पर एक तबका अब भी चाहता है कि चुनाव टाले जाएं और अंतरिम सरकार न केवल नीतियों के मामले में बल्कि संविधान से जुड़े मामलों में भी बुनियादी फैसले करे।

पिछले साल तक भारत की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ नीतियों के मूल में, बांग्लादेश एशिया में शीर्ष पांच निर्यात स्थलों में से एक और भारत के पर्यटन निर्यात का सबसे बड़ा स्रोत था। यह नई दिल्ली की क्षेत्रीय कनेक्टिविटी महत्वाकांक्षाओं में भी एक महत्वपूर्ण कड़ी थी, जिसमें सड़क, रेल, ऊर्जा और डिजिटल नेटवर्क को एक इच्छुक भागीदार के रूप में ढाका के साथ सीमाओं के पार एक साथ जोड़ा गया था। राजनीतिक बदलाव ने इस यात्रा को रोककर विपरीत दिशा में बढ़ाना शुरू कर दिया है। व्यापार और ट्रांसशिपमेंट अधिकारों को निलंबित करने के साथ कनेक्टिविटी संपर्क बाधित हो गए हैं। इतना ही नहीं चीन-पाक से रिश्ते सुधारने की दिशा में इस देश ने असाधारण तेजी दिखाई है।

भारत के साथ रेलवे लाइनों जैसी भौतिक और डिजिटल कनेक्टिविटी परियोजनाओं को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया गया है। इसकी शिकार भारत-बांग्लादेश मैत्री पाइपलाइन (आईबीएफपी) भी हुई है। भारत-बांग्लादेश मैत्री उपग्रह-कार्यक्रम ठंडे बस्ते में चला गया है। ऐसे तमाम दूसरे कार्यक्रम रोक दिए गए हैं। यात्री ट्रेनों के निलंबन ने द्विपक्षीय रिश्तों के सबसे मूल्यवान उपकरण-जनता के संपर्क को तोड़ा है। बांग्लादेश के लोग इलाज के लिए भारत आते थे, उन्हें चीन की दिशा में मोड़ा जा रहा है। घटनाक्रम रेखांकित करता है कि दक्षिण एशिया में सीमा पार कनेक्टिविटी और आर्थिक एकीकरण किस हद तक राजनीतिक हवा पर निर्भर करते हैं।

मार्च, 2025 में चीन की यात्रा के दौरान बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस ने भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को भूमि से घिरा हुआ बताया और बांग्लादेश को ‘इस पूरे क्षेत्र में महासागर का एकमात्र संरक्षक’घोषित किया था। अप्रैल में, भारत ने भारतीय क्षेत्र से पारगमन करने वाले बांग्लादेशी सामानों को पहले दिए गए ट्रांसशिपमेंट अधिकारों को वापस ले लिया। मई में खबरें आईं कि भारतीय सीमा से महज 12 किलोमीटर दूर लालमोनिरहाट में एक पुराने हवाई अड्डे को चीन की मदद से बांग्लादेश पुनर्जीवित करने जा रहा है। दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी समस्या कनेक्टिविटी की है। ऐतिहासिक रूप से यह इलाका कभी आपस में अच्छी तरह जुड़ा हुआ था, पर अब नहीं है। इन देशों में कनेक्टिविटी परिवहन (जैसे समुद्री मार्ग, सड़क और रेल), व्यापार और डिजिटल माध्यमों (जैसे उपग्रह) के माध्यम से बेहतर की जा सकती है। इस समय इन देशों के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार दुनिया में सबसे कम है, जो एकीकरण की कमी को दर्शाता है।

दक्षिण एशिया का शुमार दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगने वाले राजनीतिक अड़ंगे। इस इलाके का सहयोग संगठन दक्षेस खामोश है। नवंबर, 2014 में काठमांडू के शिखर सम्मेलन के बाद से उसका कोई सम्मेलन नहीं हुआ है। उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल संपर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके लिए तैयार थे। नवाज़ शरीफ के नेतृत्व में वहां की सरकार भी समझौते के पक्ष में दिखाई पड़ती थी, पर अंतिम क्षणों में वहां की सेना ने वह समझौता नहीं होने दिया।

भारत ने दक्षिण एशियाई उपग्रह परियोजनाओं की पेशकश की, जिसमें शामिल होने से पाकिस्तान ने इनकार कर दिया। सार्क जैसे संगठन सहयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, पर वह भी निष्क्रिय पड़ा है। चाबहार बंदरगाह जैसे आर्थिक गलियारे भी राजनीति के शिकार हुए हैं। भारत-बांग्ला इंटरनेट कनेक्टिविटी इसका ताज़ा उदाहरण है।

लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।

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