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पुतला जलते ही पतली गली बच निकलता है रावण

तिरछी नज़र
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रावण अब सिर्फ मैदान में खड़ा पुतला नहीं है, वह एक बिरादरी है। वह हर जगह फैला हुआ नेटवर्क है। इन्हें जलाने की हिम्मत हम में से किसी में नहीं है।

एक सालाना तमाशा है—रावण दहन। हम आतिशबाजी करते हैं और तालियां बजाकर रावण जलाते हैं और फिर घर आकर चैन की नींद सो जाते हैं। वास्तव में हम रावण नहीं जलाते, बस अपने पाखंड के झंडे गाड़ते हैं और पटाखों के धुएं से प्रदूषण का एक और रावण रच लेते हैं। सच्चाई यह है कि अब उसके दस सिर कई हजार हो चुके हैं। भ्रष्टाचार, बलात्कार, लूट-खसूट और सत्ता की भूख हर स्थान पर उसके नये शीश हैं। रावण अपना पुनर्जन्म लेकर अनेकानेक रूपों में विद्यमान है।

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रावण अब सिर्फ मैदान में खड़ा पुतला नहीं है, वह एक बिरादरी है। वह हर जगह फैला हुआ नेटवर्क है। इन्हें जलाने की हिम्मत हम में से किसी में नहीं है। वह हमारे घरों, दफ्तरों, और दिमागों में हर जगह छिपा बैठा है। अगर सच में विजयादशमी मनानी है तो पुतलों पर तीर चलाना छोड़िये और जीवित रावणों की फौज के खिलाफ मुट्ठी तान लीजिये। वरना भले ही रावण को हर साल जलाओ पर यह मत भूलो कि राख हवा में उड़कर कहीं हमारे ही आंगन में न आ गिरे। यह तय है कि उसकी राख हर साल हमारे माथे पर नई कालिख बनकर चिपक रही है।

दशकों बाद भी दशहरे पर वही पुराना नजारा है—रावण का कद ऊंचा करने की होड़! यक्ष प्रश्न है कि क्या कद ऊंचा करने के लिए रावण बनना जरूरी है? आज दशहरा सिर्फ एक पर्व नहीं रहा, यह ‘कद की राजनीति’ का मंच बन गया है। किसी को 80 फीट चाहिए, किसी को 100 और किसी को 120 फीट। हम रावण को ऊंचाई देकर यह जताते हैं कि वह हमारी सोच से भी बड़ा है। असली जंग उसके पुतले से नहीं, उसके विचारों से होनी चाहिए।

जब तक हम अपने अंदर के रावण को नहीं पहचानेंगे, तब तक ये पुतले यूं ही जलते रहेंगे और हम बस शोर-शराबे में अपनी आंखों पर पट्टी बांधे बैठे रहेंगे। यह सोचने का समय है कि सच में रावण कौन है और कहां है?

रावण आज जिंदा होता तो लंका को देखकर यह स्टेटस डालता- मेरी औलाद मुझसे भी आगे निकल गई।

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एक बर की बात है अक अपणे छोरे नत्थू अर बहू रामप्यारी तै देखकै उसकी दाद्दी बोल्ली- जमा ए राम सीता की जोड़ी है। नत्थू बोल्या- रहण दे, ना तो या जमीन म्हं समावै अर नां ए इस ताहिं कोय रावण ठाकै ले ज्यै।

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