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डिजिटल भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के यक्ष प्रश्न

सुरेश सेठ भारत में जब तरक्की, विकास और उपलब्धि की गणना होती है तो देश के बहुत कम समय में दुनिया में एक इंटरनेट शक्ति बन जाने की बात आती है। रिकॉर्ड समय में डिजिटल भारत बना दिया गया। अगर...
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सुरेश सेठ

भारत में जब तरक्की, विकास और उपलब्धि की गणना होती है तो देश के बहुत कम समय में दुनिया में एक इंटरनेट शक्ति बन जाने की बात आती है। रिकॉर्ड समय में डिजिटल भारत बना दिया गया। अगर रोबोट, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) और ब्राडबैंड डिजिटल प्रसार की बात होती है तो देश आज किसी भी नवसंचार चेतना के अग्रदूत से कम नहीं माना जाता है।
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आजकल दुनियाभर में चैट जीपीटी का बोलबाला है। कहा जा रहा है कि चैट जीपीटी ने इन्सान को इतनी कृत्रिम बौद्धिक शक्ति प्रदान कर दी है जिससे संकट पैदा हो गया है कि शायद उसे अब मौलिक चेतना और बौद्धिक विकास की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जब हर प्रश्न का जवाब गढ़ा-गढ़ाया चैट जीपीटी पर हो तो कोई अपनी बुद्धि को कष्ट क्यों देगा? यही नहीं, चैट जीपीटी को नेताओं को उनके भाषण, कवियोंं को उनकी कविताओं के उचित शब्द, नाटकों के संवाद और अध्यात्म के नये शब्द भी समझा सकती है। संकट पैदा हो गया कि अगर ऐसा हो गया तो प्रखर चेतना वाले इन्सान क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे। क्या उनकी मौलिक सृजनात्मक प्रतिभा के मुकाबले में यह यांत्रिक असाधारण क्षमता अवरोध बनकर खड़ी हो जाएगी? क्या नेताओं के तेज-तर्रार भाषण, नाटकों के चुटीले संवाद, कविताओं के अगले तुक अब चैट जीपीटी देगा? क्या इसकी गुणवत्ता सीमाहीन है। एक बार तो चैट जीपीटी की इस क्षमता ने सबको चौंका दिया।

बिल्कुल इसी तरह जैसे किंडल के आगमन ने पुस्तक की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए थे। कहा गया था कि अब पुस्तक का अस्तित्व मिट जायेगा व पत्र-पत्रिकाएं भी अप्रासंगिक हो जाएंगी जबकि ई-संचार माध्यम पर हर किताब, पत्रिका और हर समाचार उपलब्ध है। लेकिन यांत्रिकता तो यांत्रिकता होती है। अभी इसकी सीमा और संभावनाओं पर कई शोध भी होने लगे हैं।

पंजाबी यूनिवर्सिटी के पंजाबी विभाग के पंजाबी कंप्यूटर सहायता केन्द्र के अध्यापक ने एक शोध किया जिसने अलग-अलग भाषाओं में चैट जीपीटी की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगा दिए। नतीजा यह निकला कि अंग्रेजी से हटते ही क्षेत्रीय भाषाओं में एक तो इस सॉफ्टवेयर का अनुवाद मॉडल पूरी तरह से विकसित नहीं और दूसरी बात इसमें जितना गुड़ डालोगे, उतना ही मीठा होगा। अर्थात‍् पत्रकार और कवि आदि इंटरनेट पर ब्लॉग, विकिपीडिया और वेबसाइट्स पर जितनी अपनी रचनाएं और जानकारी साझा करेंगे उतना ही चैट जीपीटी की उड़ान भी चलेगी। शोधकर्ताओं ने बताया कि अन्य भाषाओं में पूछे गए छोटे उत्तरों वाले सवालों में अगर 80 फीसदी उत्तर सही आते हैं तो बड़े प्रश्न वाले उत्तर में 8 फीसदी तक ही उत्तर सही आ पाते हैं। इतिहास, सेहत, खेल, कंप्यूटर, गणित, करंट अफेयर, भाषा विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के प्रश्न-पत्र डालकर यह परीक्षा ली गई। पंजाबी व हिंदी-अंग्रेजी के 300 नमूनों के सवाल डाले गए। चैट जीपीटी ने 67 फीसदी, 80 फीसदी व 98 फीसदी अंक हासिल किए। इसी तर्ज पर पंजाबी भाषा के कंप्यूटर ज्ञान विषय में अकाल यूनिवर्सिटी तलवंडी साबो में केवल 8 प्रतिशत अंक हासिल हुए। यह बात अन्य डिजिटल प्रयोगों में भी महसूस की गई है।

देखा गया है कि पंजाबी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के मॉडल पूरी तरह विकसित नहीं होते हैं। इंटरनेट पर पंजाबी की पाठ्य सामग्री की कमी के कारण पंजाबी के बड़े सवालों के जवाब में प्रदर्शन खराब हो जाता है। इसलिए अगर चैट जीपीटी को भारत के लिए उपयोगी बनाना है तो भारत की क्षेत्रीय भाषाओं व हिंदी और पंजाबी आदि में भी पूरा ज्ञान और पाठ्य सामग्री अपलोड करनी पड़ेगी, नहीं तो जवाब असंबद्ध आने लगेंगे। यही बात गूगल के प्रयोग में भी देखी गई है। गूगल का भी हर जवाब सही नहीं होता, अगर उसमें नवीनतम जानकारी नहीं डाली जाती है।

बेशक कृत्रिम बुद्धिमत्ता उपकरणों के लिहाज से पिछले दिनों में रोबोट का इस्तेमाल भी बहुत प्रचलित हुआ है लेकिन रोबोट भी दो तरह के देखे गए। एक तो वे रोबोट जिनको आप निर्दिष्ट निर्देशों का पालन करने के लिए सिखाते हैं। वे केवल उतना ही करते हैं जितना उनकी यांत्रिकता में शामिल है। अब कृत्रिम बुद्धि का समावेश भी रोबोट में करने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश जितनी सफलता हासिल कर सकेगी, उतना ही रोबोट हर क्षेत्र में उपयोगी होगा। लेकिन भारत जैसे देश में, जहां आबादी 140 करोड़ के आसपास जाकर चीन को पछाड़ दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने जा रही है, वहां आधुनिक रोबोट क्या इंसानी रोजगार की जगह नहीं ले लेंगे। पहले ही भारत में काम करने योग्य व्यक्ति को रोजगार नहीं मिलता। उन्हें सरकारी अनुकम्पा और रियायती अनाज के सहारे जीना पड़ता है। अगर रोबोट का इस्तेमाल भारत में भी इसी तरह प्रचलित हो गया तो करोड़ों लोगों की यह श्रमशक्ति कहां जाएगी। क्या विदेश में पलायन होगा, जहां उनसे सस्ती दरों पर काम लिया जायेगा।

भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षितिज यहीं तक नहीं हैं। अभी नई दिल्ली में एक अभियान नीति आयोग ने संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से वन नेशन वन डिजिटल लाइब्रेरी के नाम से शुरू किया है। इसमें दिल्ली के हरेक पुस्तकालय की जानकारी पाठक को घर बैठे मिलेगी। पाठक को केवल इंडियन कल्चर पोर्टल पर लॉग इन करना पड़ेगा। चुनींदा लाइब्रेरियों की दुर्लभ किताबें उसके सामने खुलने लगेंगी। अभी यह शुरुआत सात लाइब्रेरियों से की गई है। इसमें 700 दुर्लभ किताबें शामिल हैं।

संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त सचिव के मुताबिक, देशभर के सभी पुस्तकालयों, उनकी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक किताबों की विरासत, पांडुलिपियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए वन नेशन वन डिजिटल लाइब्रेरी अभियान शुरू किया गया है। लेकिन यहां राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का कथन भी महत्वपूर्ण है कि ज्ञान को सुलभ बनाने के लिए डिजिटलीकरण जरूरी है लेकिन क्या डिजिटलीकरण से ज्ञान सुलभ हो जाएगा? क्या इसमें अध्यापक का मार्गदर्शन कोई मायने नहीं रखता? जो विद्वान रास्ता दिखा सकते हैं, क्या यंत्र उसका विकल्प बन सकते हैं? इंसान का विकल्प कभी यांत्रिकीकरण नहीं होता। हां, वह इन्सान का सहयोगी हो सकता है और इन्सान की पहुंच को बढ़ा सकता है।

अभी भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र के लिए डिजिटल ब्रॉडबैंड की शक्ति प्रदान करने की घोषणा भी कर दी है। यानी गांवों के लोग भी डिजिटल दुनिया से जुड़ जाएंगे। लेकिन बेहतर होता कि उनकी आर्थिक सीमाओं, शिक्षा स्तर का भी ध्यान कर लिया जाता। यह भी कि इतने बड़े देश में पूर्ण डिजिटलीकरण के लिए क्या मोबाइल टावरों की सुविधा हर जगह है। बेशक यह सवाल अभी अनुत्तरित है। लेकिन इस उड़ान का स्वागत तो होना ही चाहिए। उड़ान भरने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन उसको सभी पहलुओं के बारे में विचार करके ही भरना चाहिए। इसमें सही अध्यापकों का पथ प्रदर्शन, डिजिटल क्षमता के इस्तेमाल में निपुणता, प्रशिक्षण और कम लागत पर उपकरणों का वितरण भी तो उतना ही जरूरी है।

लेखक साहित्यकार हैं।

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