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ओपीएस को लेकर भाजपा के स्टैंड पर मुहर

केएस तोमर हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जैसे पुरानी पेंशन स्कीम बहाली की मांग ठुकराने के बावजूद तीन राज्यों में जो निर्णायक जीत दर्ज की है, उससे इस धारणा को बल मिलता है कि भाजपा भविष्य में भी...
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केएस तोमर

हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जैसे पुरानी पेंशन स्कीम बहाली की मांग ठुकराने के बावजूद तीन राज्यों में जो निर्णायक जीत दर्ज की है, उससे इस धारणा को बल मिलता है कि भाजपा भविष्य में भी नयी पेंशन स्कीम को ही लागू करेगी, जिसे सरकार देश के आर्थिक हित में बड़ा कदम समझती है। एनपीएस को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मत था कि देश के हित में यह निर्णय लाभकारी होगा। इसी कारण उन्होंने पुरानी पेंशन योजना को हटाकर नयी पेंशन योजना लागू करने का निर्णय लिया था। नयी योजना निवेश आधारित और लाभकारी मान कर 2003 में लागू की गई थी। यह सोच थी कि भविष्य में देश को आर्थिक बोझ और राज्यों को वित्तीय संकट से बचाने के लिए नयी नीति आवश्यक है। अन्यथा पूरा आर्थिक ढांचा ही तबाह हो जाएगा।

जानकारों के अनुसार यह सही है कि हिमाचल में कांग्रेस की जीत का मुख्य कारण ही पुरानी पेंशन की बहाली का वादा रहा। कुछ हद तक इसका लाभ कर्नाटक चुनावों में भी मिला। लेकिन इस पुरानी पार्टी को तीन राज्यों में पुरानी पेंशन स्कीम बहाली की घोषणा का कोई लाभ नहीं मिला और शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके कि कांग्रेस की राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने ओपीएस को लागू भी कर दिया था।

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झारखंड व पंजाब राज्य सरकारों ने भी ओपीएस लागू कर दी है। कर्नाटक ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक सदस्य समिति गठित की है। उधर किसी भी भाजपा शासित राज्य सरकार ने ओपीएस बहाली का कदम नहीं उठाया है जो केंद्र की इस बाबत साफ़ नीतिगत सोच दर्शाता है क्योंकि राष्ट्रीय हित में इसे दोबारा लागू करना सही नहीं माना गया।

यद्यपि हिमाचल और कर्नाटक चुनावों में भाजपा की हार के लिए ओपीएस का मुद्दा महत्वपूर्ण माना गया, लेकिन इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच राज्यों के चुनावों में एक बड़े राजनीतिक जोखिमपूर्ण निर्णय के तहत दबाव को अनदेखा करते हुए कर्मचारियों को ओपीएस की बहाली का वादा नहीं किया। दरअसल, कर्मचारियों का नकारात्मक रवैया इन चुनावों में इतना प्रभावशाली नहीं रहा जो अन्य मुद्दों पर हावी होकर चुनावी नतीजे बदल सकता। कठिन लगता है कि अब भविष्य में ओपीएस बहाली पर केंद्र विचार करे।

इसके विपरीत कांग्रेस 2024 में अपनी स्थिति सुधारने के लिए ओपीएस मुद्दे को भुनाने का प्रयास करेगी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता जता रहे हैं कि ओपीएस के कारण केंद्रीय व राज्य कर्मचारी उनका समर्थन करेंगे। केंद्रीय व राज्य कर्मचारियों की संख्या 4 करोड़ 60 लाख के लगभग है। इंडिया गठबंधन इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करेगा। हिमाचल और पंजाब ने ओपीएस लागू कर दिया है जबकि इन राज्यों पर 2 लाख 63 हजार करोड़ और 90000 करोड़ के ऋण हैं। पुरानी पेंशन लागू होने से भार और बढ़ेगा।

आंकड़ों के अनुसार पेंशन मद पर प्रदेश सरकारें बजट का 2.1 प्रतिशत खर्च करती थीं, जो बढ़ कर 9.8 प्रतिशत हो गया है। आने वाले दिनों में यह और बढ़ेगा। वर्ष 2014 से 2019 के मध्य इसमें 15.90 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। केंद्र सरकार ने संसद को बताया है कि 2020-21 में 70 लाख केंद्रीय कर्मचारियों को पेंशन के रूप में 2 लाख 54 हजार करोड़ का भुगतान किया गया। हर वर्ष इसमें बढ़ोतरी होने की आशंका है। एेसे राज्यों द्वारा ओपीएस लागू करने पर हर वर्ष 1.56 लाख करोड़ खर्च होंगे।

जाने-माने अर्थशास्त्री ओपीएस की बहाली का जोरदार विरोध कर रहे हैं। उनका मत है कि भविष्य में अर्थव्यवस्था पर इसके दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे और यह असर सभी क्षेत्रों को प्रभावित करेगा। भंग किए गए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कुछ राज्यों द्वारा ओपीएस बहाली को घातक बताते हुए आशंका जताई कि इससे राज्य दिवालिया हो जाएंगे। पूर्व केंद्रीय वित्त सचिव और लेखा नियंत्रक राजीव महर्षि ने 2023 चुनावों से पहले राजस्थान सरकार द्वारा ओपीएस बहाली पर कहा था कि अन्य राज्य भी इसका अनुसरण करेंगे क्योंकि वह नयी पेंशन योजना में अपना हिस्सा जमा करवाने से बच जाएंगे। उनका कहना था कि राजनीतिक लाभ के इस गलत निर्णय का दुष्परिणाम 2035 के बाद पता चलेगा, जब कर्मचारी, जो इस समय एनपीएस के अंतर्गत हैं, रिटायर होंगे। रिजर्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट में साफ़ किया है कि ओपीएस बहाली के कारण इतना बोझ बढ़ेगा कि उसे उठाना मुश्किल हो जाएगा। पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली का असर नयी योजना से लगभग 4.5 गुना अधिक होगा। इस कारण 2060 में जीडीपी पर लगभग 0.9 प्रतिशत भार बढ़ेगा। आज से 23 वर्ष पूर्व की गयी छानबीन के अनुसार केंद्र व राज्यों द्वारा ओपीएस के भुगतान का कुछ समय बाद असर होगा कि मद पर किया जाने वाला खर्च इतना अधिक होगा कि उसे संभालना कठिन होगा और अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी।

लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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