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कीजिए कद्र रिश्ते सहेजने के हुनर की

तिरछी नजर
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रिश्ते भी तो रस्सी पर टंगे कपड़ों जैसे हैं। कभी तिलमिलाहट का तौलिया, कभी मुस्कान की कमीज, कभी गम का पायजामा, कभी रूठने की ओढ़नी तो कभी मनाने का दुपट्टा। सब टंगे रहते हैं, हवा लगते ही उड़ने को तैयार।

एक मनचले का कहना था कि इन आंधियों से कह दो कि औकात में रहें, तीन बार मेरा तौलिया उड़ा के ले गई हैं। रस्सी या तार पर सूखते कपड़ों को हवा-आंधी से बचाने वाली एक छोटी-सी चिमटी का काम कितना बड़ा है। यह कपड़ों को जकड़े रहती है, उन्हें उड़ने नहीं देती। अगर ये मामूली-सी चिमटी न होती तो हमारे कमीज-पायजामे भी हवा संग पड़ोस की खिड़की या किसी की बालकनी में फड़फड़ा रहे होते! और फिर घर में ‘लट्ठम-लट्ठा’ शुरू कि मेरे कपड़े कहां गये?

रिश्ते भी तो रस्सी पर टंगे कपड़ों जैसे हैं। कभी तिलमिलाहट का तौलिया, कभी मुस्कान की कमीज, कभी गम का पायजामा, कभी रूठने की ओढ़नी तो कभी मनाने का दुपट्टा। सब टंगे रहते हैं, हवा लगते ही उड़ने को तैयार। कभी घमण्ड की आंधी, कभी गलतफहमी की झोंक तो कभी ‘तू-तू मैं-मैं’ का बवंडर रिश्तों को उड़ा देता है। रिश्तों की मजबूती, चिमटी की पकड़ जैसी होती है। चिमटी छोटी सही, मगर उड़ते रिश्तों को थाम लेती है। बड़े-बुजुर्ग ही तो असली चिमटी हैं जो रिश्तों को हवा लगने से बचा लेते हैं। परिवार का हर रिश्ता तभी बचा रहता है जब भावनापूर्ण बुद्धिमत्ता की कोई चिमटी चुपचाप उसे पकड़कर रखे।

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जिंदगी की हवाएं भी कोई कम नहीं। कभी गलतफहमी की हवा, कभी अहंकार का तूफान, कभी ईर्ष्या की आंधी, तो कभी बस छोटी-सी तुनकमिजाजी की सरसराहट। इन हवाओं में रिश्तों के कपड़े फड़फड़ाने लगते हैं, कभी लगता है कि बस, अब उड़े कि अब उड़े। और फिर बिखर जाएंगे, छिटक जाएंगे और रह जाएगी सिर्फ खाली रस्सी। लेकिन तभी एक अदृश्य-सी ताकत बीच में आ जाती है। वो है- रिश्तों की चिमटी। ये चिमटी कोई और नहीं होती- कभी दादी का थपकी, कभी नानी का मीठा मशवरा, कभी पिता का ठहराव भरा वाक्य तो कभी मां की उक्ति कि अरे छोड़ो, छोटी-सी बात है, सब ठीक हो जायेगा!

यकीन मानिए, इन चिमटियों ने न जाने कितने रिश्तों को उड़ने से बचाया है। दो भाइयों की जिद को पिघलाया है, दो बहनों के बीच की गलतफहमियों को धो डाला है, पति-पत्नी की तकरार को हंसी में बदल दिया है और पड़ोसियों की अनबन को सुलझाया है। अगर ये चिमटियां न हों तो हमारे रिश्ते कब के उड़कर कहीं दूर चले गए होते और हमें उनका पता भी नहीं लगता। इनके कारण ही हवा थम जाती है और रिश्ते टिक जाते हैं।

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एक बर की बात है अक रामप्यारी की सहेलियां बात करैं थीं अक वे बरसात के सुहाने मौसम म्हं घूम्मण जावैं हैं अर सात भांत के पकोड़े बणावैं हैं। रामप्यारी बोल्ली- बेब्बे! मैं तो मींह आते ही न्यूं सोच्चूं अक ये लत्ते सूखने कित डालूं?

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