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चुनावी मौसम में सर्वेक्षण के गुमनाम सूत्र

तिरछी नज़र

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कहने को तो सर्वेक्षण जनता की राय पर आधारित होते हैं, लेकिन यह ‘जनता’ कौन है — यह कोई नहीं बताता। कभी यह जनता कॉफी शॉप में बैठी मिलती है तो कभी सोशल मीडिया की टिप्पणियों में।

देश के मौसम वैज्ञानिक भले ही भारत में मौसमों को सर्दी, गर्मी और बरसात तक सीमित बताते हों, लेकिन वे एक और मौसम को रेखांकित करना भूल गए हैं— चुनाव का मौसम।

इस मौसम की खासियत यह है कि इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। यह न तो पंचांग में दर्ज है, न मौसम विभाग इसकी भविष्यवाणी कर पाता है। यह मौसम केवल चुनाव आयोग की घोषणा के साथ आता है और मतदान संपन्न होते ही वैसे ही लौट जाता है, जैसे बरसात के बाद अचानक धूप निकल आए।

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चुनाव घोषित होते ही सर्वेक्षणों की बहार शुरू हो जाती है। टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक, हर ओर आंकड़ों का अंबार लग जाता है। कभी कोई सर्वे, कभी कोई—जैसे कोई नया ट्रेंड चल पड़ा हो। अब सर्वेक्षण करवाना राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन गया है। नेता और दल इन सर्वेक्षणों का सहारा लेकर अपनी टिकट सुनिश्चित करने या अपने ही दल के प्रतिद्वंद्वी की टिकट कटवाने तक की जुगत में लग जाते हैं। ये सर्वेक्षण कितने प्रामाणिक हैं, इसका कोई ठोस सबूत किसी के पास नहीं होता। सर्वेक्षण किसके द्वारा, कब और कैसे किए गए — इससे किसी को कोई मतलब नहीं।

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इन सर्वेक्षणों से किसी उम्मीदवार को लाभ मिले या न मिले, लेकिन मतदाता ज़रूर भ्रमित हो जाता है। हर चैनल पर दिखाया जाने वाला अलग-अलग सर्वे मतदाता को इस कदर उलझा देता है कि वह तय ही नहीं कर पाता कि सच कौन बोल रहा है। हर सर्वे ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि झूठ भी सच लगने लगता है और सच केवल आंकड़ों के नीचे दबकर रह जाता है।

कहने को तो सर्वेक्षण जनता की राय पर आधारित होते हैं, लेकिन यह ‘जनता’ कौन है — यह कोई नहीं बताता। कभी यह जनता कॉफी शॉप में बैठी मिलती है तो कभी सोशल मीडिया की टिप्पणियों में।

जनता से पूछा गया या नहीं, इसकी पुष्टि कभी नहीं होती, फिर भी परिणाम ऐसे दिए जाते हैं जैसे देश की तकदीर इन्हीं आंकड़ों से तय होगी।

अब सवाल यह भी उठता है कि सर्वेक्षण कला है या विज्ञान?

दरअसल, यह दोनों है। विज्ञान इसलिए कि जैसे हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, वैसे ही हर सर्वे का असर कहीं न कहीं दिखता है। और कला इसलिए कि इसे इतनी सजावट के साथ पेश किया जाता है कि झूठ भी आधा सच लगने लगता है।

चुनावी मौसम की एक और खासियत यह है कि इसमें हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में राजनीतिक जानकार बन जाता है। चाय की दुकानों पर बैठे लोग आंकड़ों पर बहस करते हैं, रिक्शेवाला भी प्रतिशत की बात करता है, और पड़ोस के शर्मा जी तो ऐसे नतीजे सुनाते हैं, जैसे चुनाव आयोग उनके घर की छत पर बैठा हो। सच कहिए, अब पूरा देश एक बड़ा न्यूज स्टूडियो बन चुका है—हर कोई अपना चैनल चलाने में लगा है।

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