ले. जन. मोहिंदर पुरी (अ.प्रा.)
इस बात को 22 साल हो गए जब कारगिल सेक्टर में पाकिस्तान की विश्वासघाती घुसपैठ ने देश को युद्ध के कगार पर ला दिया था। दरअसल, यह लेख 8वीं माउंटेन डिवीज़न के उन युवा अफसरों और जवानों को नमन है, जिनकी अगुवाई करने का मुझे सौभाग्य और सम्मान मिला। जब मैं इन पिछले बरसों को याद करता हूं तब मुझे ख्याल आता है कि कुछ अफसर जो आज अगर जिंदा होते तो शायद किसी ब्रिगेड के कमांडर होते और इसी तरह वे युवा सिपाही भी अपने कैडर में समय के साथ ऊंचे पदानुक्रम को प्राप्त करते। लेकिन शौर्य की जो विरासत वे वीर छोड़ गए हैं, वह वर्दी में किसी पद पर रहने से कहीं ज्यादा समृद्ध और लंबे समय तक याद रहेगी।
कारगिल की पहाड़ियों ने हमें हथियार उठाने को ललकारा था, विश्व की सबसे दुरूह भौगोलिकता में एक गिने जाने वाले इस इलाके में 14000-18000 फीट के बीच तीखी चढ़ाई वाली ऊंची पहाड़ियां, विपरीत मौसम में हुई भीषण लड़ाई की गवाह बनी। मेरे मानसपटल पर न मिटने वाला जो अक्स छपा हुआ है, वह है भारतीय सैनिकों का विलक्षण अदम्य चरित्र। एक मिनट के लिए जरा कल्पना करें कि एक भारतीय फौजी अफसर कठिनतम चढ़ाई पर दुश्मन की चौकी कब्जाने के आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है, ऊपर भारी बर्फबारी और तापमान माइनस 30 डिग्री सेलसियस के आसपास है, तिस पर चोटी पर बैठे दुश्मन की गोलीबारी उसे और जवानों को सीधे निशाना बना रही है। अपने नेतृत्व के एक आदेश पर वह मातहत सैनिकों के साथ आखिरी हल्ला बोलने को आगे बढ़ता है। एक क्षण के लिए भी उसके मन में यह विचार नहीं आता कि क्या फिर से अपने परिजनों, मां बनने जा रही पत्नी, बच्चों या बुजुर्ग मां-बाप से मेल हो पाएगा या नहीं। इन युवा फौजियों के बलिदान के कई किस्से हमारी लोकगाथाओं का हिस्सा बन चुके हैं, और इनकी यादें जिंदा रखने को यह बखान जारी रहना चाहिए ताकि आज के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत बने।
फौजी होना एक विशेष तरह की पुकार है। यह उन तीन आधारभूत सिद्धांतों का प्रतीक है, जिनकी घुट्टी शपथ लेते वक्त मिली थी : पहला, एक फौजी बनना अपरिमित फर्ज निभाने का अनुबंध है, दूसरा-द्वितीय स्थान पर होना कतई मंजूर नहीं, तीसरा- अनेकता में एकता पर कोई समझौता नहीं। यह इन तीन सिद्धांतों का परिपालन है, जिसको वह आगे वितरित करता है। अपनी फौजी बिरादरी में ‘नाम-नमक-निशान’ सिद्ध कर दिखाने से कुछ कम उसको संतुष्ट नहीं कर सकता। कारगिल युद्ध में भी, हमेशा की तरह, हमारे सैनिकों ने अनुबंध के सभी अंगों को उच्च बनाए रखा। यही वह खासियत है, जिसकी वजह से हमारे सैनिक सबकी नज़रों में चढ़े रहते हैं। अतएव जो दुश्मन हम पर बुरी निगाह डालेगा, उसकी शामत आनी निश्चित है। इसी पर अमल करते हुए युवा भारतीय सैनिकों ने कारगिल में अपना शक्ति प्रदर्शन कर दिखाया था।
हर सफल हमले के पीछे क्रियान्वयन में बरती प्रचंडता की गाथा होती है, जो रेजिमेंट, सेना और देश का गौरव बढ़ाती है। हमारे युवा अफसर एवं सिपाही, जो भी रणभूमि में उतरे, पूरी दृढ़ता से लड़े, कइयों की वापसी राष्ट्रीय ध्वज में लिपटकर हुई। वे सब हमारे अपने थे, हर वर्ग से आए, उनके अंदर ज्वाला धधक रही थी और इतिहास रच डाला।
कैप्टन विजयंत थापर का किस्सा लें, भारतीय सेना अकादमी से नये-नये बनकर निकले सेना अधिकारी, जिनके लिए गौरव, फर्ज और पारिवारिक मूल्यों एवं रिवायतों को ऊंचा बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण था। सबसे दुरूह और सामरिक महत्व के स्थान पर जमे बैठे दुश्मन को खदेड़ने से पहले उन्होंने अपने जवानों को कहा : ‘यदि मैं पीठ दिखाऊं तो मुझे गोली मार देना और कोई अन्य पीछे हटा तो मैं मार डालूंगा।’ यह पता लगने पर कि कंपनी कमांडर शहीद हो गए हैं, कैप्टन विजयंत ने कमान संभाली और अपनी टुकड़ी के साथ निशाने पर कब्जा कर लिया। इस दौरान जीत पाने को सैनिकों का नेतृत्व कर रहे विजयंत को मशीनगन की गोलियां लगीं और उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
1999 में हुई कारगिल लड़ाई बहादुरी और दिलेरी की गाथाओं से अटी पड़ी है। कैप्टन अनुज नैयर अपनी उस बटालियन का हिस्सा थे, जिसको एक बहुत महत्वपूर्ण और जटिल मोर्चे को फतह करने की चुनौती मिली थी। हमले में कैप्टन अनुज के कंपनी कमांडर जख्मी हो गए, और कमान इस युवा के कंधों पर आन पड़ी। उनकी टुकड़ी दुश्मन की तोपों एवं मोर्टार की भीषण गोलाबारी के बीच आगे बढ़ी। कैप्टन अनुज ने राकेट लांचर और ग्रेनेडों से पहला बंकर तबाह कर दिया। दुश्मन अभी भी भारी गोलीबारी कर रहा था, लेकिन उन्होंने दो और बंकरों को नष्ट करने में अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। अब टुकड़ी बाकी बचे आखिरी बंकर की ओर बढ़ी, लेकिन इसको खाली करवाते वक्त शत्रु का ग्रेनेड सीधा आन लगा और वे शहीदी पा गए। कैप्टन अनुज को मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाज़ा गया।
50 दिन चली लड़ाई ने अभ्यास, प्रेरणा, सैन्य इकाई की मूल भावना और फौज के भाईचारे वाले प्रशिक्षण की प्रभावशीलता को सिद्ध कर दिखाया। चूंकि इस युद्ध की कवरेज हमें घर बैठे देखने को मिली थी, इसने लोगों में एक दुर्लभ किस्म का उत्साह जगा दिया था। भारत के हर कोने में वीर सैनिकों की पार्थिव देह का राजकीय सम्मान के साथ संस्कार किया गया।
8वीं माउंटेन डिवीज़न ने तीन परमवीर चक्र हासिल किए हैं, जो देश का सर्वोच्च वीरता सम्मान है। कैप्टन विक्रम बतरा, मानद लेफ्टिनेंट योगेंद्र यादव और सूबेदार मेजर संजय कुमार को यह अतिसम्माननीय पदक मिला है। जहां कैप्टन विक्रम को यह सम्मान मरणोपरांत मिला है वहीं बाकी दोनों अभी भी सेवारत हैं।
कैप्टन विक्रम बतरा, हिमाचल प्रदेश के छोटे-से शहर पालमपुर के एक युवा थे। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वे फौज में जाने को काफी प्रेरित हुए। उन्हें अपनी बटालियन में कमीशन मिली और जल्द ही द्रास की बर्फ से ढकी चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठियों को निकाल बाहर फेंकने को तैनात किया गया। अपनी बहादुरी के लिए मशहूर होने के अलावा वे अपने जयघोष : ‘यह दिल मांगे मोर’ के लिए याद किए जाते हैं।
कैप्टन विक्रम ने अपने दूसरे हमले में, जो लगभग 15 दिनों या कुछ बाद में हुआ था, अपने नेतृत्व और शौर्य के जौहर फिर से बखूबी दिखाए थे। उनकी अगुवाई में एक टुकड़ी ने बहुत ऊंची चोटी पर काबिज दुश्मन को मार भगाने का अभियान शुरू किया। अनेकानेक गंभीर जख्म खाने के बावजूद वे नेतृत्व करते रहे और बाद में यही उनकी शहीदी का कारण बने।
कैप्टन विक्रम की बटालियन के राइफलमैन संजय कुमार ने दुर्लभ वीरता दिखाई जब उन्होंने अकेले ही दुश्मन की मोर्चेबंदी पर धावा बोल दिया और बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद शत्रु से जूझते रहे और अपनी टुकड़ी को सहयोग देना जारी रखा। तीसरे परमवीर चक्र विजेता, ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव, जिनका कारनामा हैरानकुन है। वे एक आक्रमण टुकड़ी का हिस्सा थे। अभियान में उन्हें सात गोलियां लगी, लेकिन वे आगे बढ़ते रहे और हाथापाई में चार दुश्मन सैनिकों को मार गिराया। जब तक चौकी पर कब्जा नहीं हो गया तब तक उन्होंने खुद को संग्राम स्थल से हटाने नहीं दिया।
यह लेख तब तक अधूरा रहेगा यदि मैं शहीदों के उन परिजनों का जिक्र न करूं, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया है और अब जिंदगी गौरव एवं गरिमा के साथ जारी रखे हुए हैं। इस तरह की एक महिला शहीद सैनिक नायक बचन सिंह की पत्नी हैं, जो युद्ध के आरंभिक चरण में शहीद हो गए थे। उनकी पत्नी कमलेश बाला ने अत्यंत साहस और दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने जुड़वां पुत्रों को बढ़िया शिक्षा-दीक्षा दिलवाई और फिलहाल उनमें से एक बेटा कैप्टन हितेश कुमार अपने पिता की बटालियन में कमीशंड अफसर है। हमें हमेशा उन 527 अफसर और जवानों को श्रद्धांजलि देनी चाहिए, जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया है। यह अवसर 21वीं सदी में जन्मे बच्चों के लिए यह प्रेरणा पाने का भी है कि ‘अतुलनीय भारत… अजेय भारत’ भी है।
लेखक पूर्व उपसेनाध्यक्ष हैं।