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‘एक भारतीय आत्मा’ को अभिनव आदरांजलि

बाबई का माखननगर बनना
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भारत के साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास में माखननगर का नामकरण एक ऐतिहासिक और गर्वपूर्ण परिघटना है, जो दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्मृति को चिरस्थायी बनाती है।

विजयदत्त श्रीधर
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वे समाज और राष्ट्र सच्चे अर्थों में समुन्नत होते हैं जो अपनी संस्कृति और परंपरा को सगर्व स्वीकारते हैं, और उनका अनुपालन करते हैं। ऐसे समाज अपने महनीय और कृती व्यक्तियों और उनके कृतित्व का स्मरण करते हैं, और उनके स्मारक भी रचते हैं। भारत से विदेश यात्रा पर जाने वाले लोग बहुधा अपने अनुभव सुनाते हुए उल्लेख करते हैं कि किन देशों और स्थानों पर उनके महान साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों के सम्मान और स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए किस प्रकार स्मृति चिह्नों को सहेजा गया है। भारत में ऐसी कोई परंपरा नहीं है। भारत के सुदीर्घ और समृ़द्ध सांस्कृतिक इतिहास में अनेक विभूतियां हैं। इनमें मूर्धन्य साहित्यकार, शिरोमणि कलाकार, उद्भट विद्वान शिक्षाविद्, वैज्ञानिक सम्मिलित हैं। राष्ट्र की सीमाओं से परे विश्व फलक पर उनकी सर्जना को रेखांकित किया गया है। परंतु उन विभूतियों से संबंधित स्थलों के प्रति प्रायः उपेक्षा और उदासीनता का भाव ही हमारा स्वभाव है। यह जरूर है कि कुछ विभूतियों के नाम पर संस्थान स्थापित हुए हैं। ऐसे परिवेश और सामाजिक पर्यावरण में बीते दिनों भारत के हृदय मध्यप्रदेश में घटित ऐतिहासिक परिघटना ने इस जड़ता को तोड़ा है।

मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम‍् (होशंगाबाद) जिले के बाबई गांव में जन्मे दादा माखनलाल चतुर्वेदी चिंतक, कवि, संपादक, स्वाधीनता आंदोलन के अग्रगण्य हस्ताक्षर रहे हैं। प्रभा और कर्मवीर के संपादक के रूप में उन्होंने राष्ट्र की वाणी को मुखरित किया। जब योद्धा पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी कारावासी हुए, तब माखनलाल जी ने ‘प्रताप’ के संपादन का दायित्व संभाला। कवि-लेखक की भूमिका में मानवीय संवेदना और सरोकारों के साथ-साथ स्वाधीनता की चेतना को स्वर दिया। वे गिरफ्तारी देने वाले मध्य प्रांत के पहले सत्याग्रही थे। ऐतिहासिक झण्डा सत्याग्रह के नायक थे। बिलासपुर जेल में 18 फरवरी, 1922 को जिस ‘पुष्प की अभिलाषा’ की उन्होंने रचना की, वह समूचे देश के लिए आजादी का तराना बन गई थी। ऐसी राष्ट्रीय विभूति की जन्मभूमि बाबई उपेक्षित थी।

सन‍् 1988-89 दादा माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म शताब्दी वर्ष था। इस प्रसंग में माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय, भोपाल ने बाबई में माखनलाल चतुर्वेदी जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन किया। साहित्य और पत्रकारिता के शीर्षजनों ने इस मंच से दादा की जन्मस्थली बाबई का नामकरण ‘माखननगर’ करने की अपील की। 4 अप्रैल, 1988 को माखनलाल जी के सौवें जन्मदिन पर मध्यप्रदेश विधानसभा ने सर्वसम्मति से तदाशय का संकल्प पारित किया। उस समय सदन के नेता मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, नेता प्रतिपक्ष कैलाश जोशी और विधानसभा अध्यक्ष राजेन्द्रप्रसाद शुक्ल थे। विधानसभा में इन तीनों संवैधानिक हस्तियों की वाणी में मानो मध्यप्रदेश के कोटिशः कण्ठों का कृतज्ञ स्वर मुखरित हुआ था। तथापि प्रक्रिया की भूल-भुलैया में इस संकल्प का साकार होना उलझा रहा। आखिरकार दादा माखनलाल चतुर्वेदी की 134वीं जयंती आते-आते नामकरण की जन-अभिलाषा पूरी होने की घड़ी आ गई।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, के निरंतर प्रयासों के कारण संकल्प साकार हो सका। एक विशाल जनसभा में हजारों नागरिकों की उपस्थिति में ‘बाबई’ से ‘माखननगर’ नामकरण का समारोह मनाया गया। बाबई में जितने भी शासकीय और अर्द्धशासकीय कार्यालय स्थापित थे, उन सभी के नामपट पर ‘माखननगर’ अंकित किया गया। वैसे बाबई के सभी व्यापारिक प्रतिष्ठान कई साल पहले से अपने नामपट में माखननगर जोड़ चुके थे। नागरिक अपने पत्र-व्यवहार में और पत्रकार अपने समाचारों के साथ माखननगर नाम का प्रयोग कर रहे थे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जब 7 दिसंबर, 1933 को बाबई पहुंचे, तब उन्होंने कहा था—‘हम सब लोग बात करते हैं, बोलना तो माखनलाल जी ही जानते हैं। मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए आया हूं, क्योंकि यह माखनलाल जी का जन्म स्थान है। जिस भूमि ने माखनलाल जी को जन्म दिया है, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।’

कांग्रेस के अध्यक्ष नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 17 फरवरी, 1938 को अपने संदेश में कहा था—‘पिछले 14 वर्षों से ‘कर्मवीर’ ने राष्ट्रीय महासभा के झण्डे को ऊंचा रखा है और प्रति सप्ताह हमारे देशवासियों को प्रेरणात्मक संदेशों से अनुप्रेरित करता रहा है। मेरी यह एकांत आशा और प्रार्थना है कि इस पत्र द्वारा हमारी मातृभूमि की लगातार सेवा होती रहे।’ मूर्धन्य साहित्यकार फिराक गोरखपुरी की सम्मति उल्लेखनीय है—‘उनके लेखों को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता था कि आदि शक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही हैं। यह शैली हिन्दी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई।’

बाबई का माखननगर बनना भारत के संस्कृति-साहित्य-पत्रकारिता इतिहास का अनूठा और अभूतपूर्व अध्याय है। परंतु यह टीस कचोटती है कि भारत में और विशेष रूप से हिन्दी जगत में हर्ष और उल्लास की जैसी प्रतिक्रिया होनी थी, वह नहीं हुई। कदाचित इसकी अनुभूति भी नहीं है। जबकि इस परिघटना से गर्व और गौरव का नया अध्याय रचा जाना चाहिए।

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