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वैश्विक चुनौतियों के बीच अंदरूनी मुद्दों पर ध्यान जरूरी

तेजी से बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों के बीच भारतीय विदेश नीति की चुनौतियां बढ़ी हैं। इनमें मध्य पूर्व के कुछ देशों व अमेरिका से संबंधों में बदलाव प्रमुख हैं। पाकिस्तान से मई झड़प के बाद दोनों ओर से तल्ख बयानबाजी और...

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तेजी से बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों के बीच भारतीय विदेश नीति की चुनौतियां बढ़ी हैं। इनमें मध्य पूर्व के कुछ देशों व अमेरिका से संबंधों में बदलाव प्रमुख हैं। पाकिस्तान से मई झड़प के बाद दोनों ओर से तल्ख बयानबाजी और धमकियां जारी हैं। लेकिन देश के सीमावर्ती राज्यों में तनाव ज्यादा चिंताजनक है। वहां मूल समस्याओंं का हल जरूरी है।

भू-राजनीतिक सत्ता के खेल के पहलू सामान्य से कहीं ज़्यादा तेजी से चल रहे हैं, और मैं खुद को हम पर पड़ने वाले प्रभाव पर आत्मचिंतन करता पा रहा हूं। हमास-इस्राइल संघर्ष मामले में शुरुआत हो चुकी है, और युद्धविराम हो गया है; इस्राइली बंधकों और फ़लस्तीनी कैदियों की अदला-बदली हुई है। इस लड़ाई से अमेरिका, ब्रिटेन, इस्राइल, मिस्र, लेबनान, यमन, ईरान, कतर, सीरिया के अलावा कुछ अन्य देश भी जुड़े थे, हो सकता है जिन्हें मैं नज़रअंदाज़ कर गया।

शांति सदा स्वागत योग्य है, लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या यह स्थायी हो पाएगी। सही तरह अमेरिका की मदद प्राप्त इस्राइल ने इस लड़ाई में अपना वर्चस्व स्पष्टतया प्रदर्शित किया है। यह भी दिखाया कि इस्राइल की अति-दक्षिणपंथी विचारधारा में फ़लस्तीनी राज्य के विचार के प्रति ज़ीराे टॉलरेंस है, और फिलहाल यही नीति हावी है। यह गाज़ा पर बमबारी, वैस्ट बैंक पर बसने वालों को दिए समर्थन और तमाम विरोध कठोरता से कुचलने में देखने को मिला। क्या इससे फ़लस्तीनी देश और द्वि-राष्ट्र समाधान की मांग समाप्त हो जाएगी...शायद नहीं।

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अंततः, यह तीन प्राचीन समुदायों और धर्मों के बीच की सांप्रदायिक रार है। यरुशलम को लेकर सदियों से लड़ाई जारी है... यहीं से ईसाई धर्म, इस्लाम और यहूदी धर्म की उत्पत्ति हुई, और यह मान बैठना ज्यादा ही सरल होगा कि अब सब झगड़ा सुलझ गया है। मध्य पूर्व के विशाल कच्चे तेल भंडारों पर नियंत्रण की इच्छा भी महाशक्तियों के लिए हस्तक्षेप करने में बड़ा लालच है। यह देखते हुए कि यूरोप के अधिकांश देशों और ब्रिटेन ने हाल ही में फ़लस्तीनी राज्य को मान्यता दी है, हमास को निरस्त्र करने और फ़लस्तीनी समस्या के समाधान की मांगों पर अभी बहुत काम करना बाकी है।

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क्या इस संघर्ष में हमारी स्थिति ने मध्य पूर्व के उन देशों के साथ संबंधों में शायद कुछ ठंडक ला दी है, जिनके साथ अतीत में हमारे रिश्ते मधुर रहे हैं? पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हालिया रक्षा समझौता इसका संकेत देता है। इसके अलावा, अमेरिका और पाकिस्तान के बीच फिर से बना दोस्ताना भी हमारे लिए चिंता बढ़ाने वाला है। अमेरिका को ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और चीन के नज़दीक एक रणनीतिक साझेदार चाहिये...और पाकिस्तान की सीमा इन तीनों से लगती है। वहीं ख़ुफ़िया जानकारी और रसद सहायता प्रदान करने में भी वह उपयोगी है। पाकिस्तान की सभी पक्षों के साथ खेलने की चाह का असर अफ़ग़ानिस्तान के साथ लगती उसकी उत्तरी सीमाओं पर पहले ही पड़ रहा है, जहां झड़पें और हताहतों की संख्या बढ़ रही है। पाकिस्तानी एक ही वक्त चीन और अमेरिका के साथ संबंधों के संतुलन को कैसे साध पाएगा, यह एक कूटनीतिक कौतुक होगा।

यह परिस्थिति हमारी सुरक्षा के लिए सवाल पैदा करती है कि क्या अमेरिका और चीन, पाकिस्तान को लुभाने की खातिर, कश्मीर के बारे उसकी आसक्ति में साथ देंगे? क्या इस क्षेत्र में संघर्ष बड़ी ताकतों को माफिक होेगा? दशकों से, हमारी नियंत्रण रेखा सक्रिय रही है, जिस पर पूर्ण युद्ध से लेकर बमबारी और सीमित झड़पों तक, विभिन्न स्तर के टकराव होते आए हैं। हालिया मुठभेड़ ने दोनों पक्षों की एक-दूसरे को पहले की अपेक्षा अधिक नुकसान पहुंचाने की क्षमता का प्रदर्शन किया। ड्रोन व उपग्रहों की मदद से लैस आधुनिक हवाई शक्ति का उपयोग स्पष्टतया रेंज और क्षमता, दोनों में, वृद्धि-विस्तार दर्शाता है। क्या हम दुश्मन को मात देने की क्षमता प्रदर्शित करने में सफल रहे?

पिछली झड़प के बाद से, बयानबाज़ी तेज़ हो गई और युद्ध के नगाड़े बजते सुनाई दे रहे हैं। सर्वप्रथम, इस झड़प के परिणाम की धारणा दोनों पक्षों में बहुत अलग रही है; द्वितीय धमकियां और जवाबी धमकियां रोज़ की बात हो गयी - न केवल राजनेता, बल्कि सैन्य अधिकारी भी इस खेल में शामिल हो गए। सशस्त्र बल मूक भागीदार नहीं; अब खुलकर चुनौतियां व धमकियां देने लगे हैं।

आए दिन कोई न कोई जनरल या फील्ड मार्शल अपनी बयानबाज़ी में और धार लाता नज़र आता है। हमारा कहना है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है, वे भी उसी भाषा में बोल रहे हैं। एक-दूसरे के इतिहास और भूगोल को दफनाने की धमकियां नया आयाम है। ठीक इसी वक्त, दोनों मुल्क कुछ देशों की राजधानियों में अपनी स्थिति की पैरवी करने और मजबूत में करने में लगे हैं, ज़्यादा हथियार, ज़्यादा संधियां... हम वाशिंगटन, बीजिंग, मॉस्को, लंदन आदि में बैठे अपने ‘अंकलों’ की ओर देखते हैं। जितना ज़्यादा हम पैरवी करने और संबंध बनाने को भागदौड़ करेंगे, उतनी ही ज़्यादा संभावना रहेगी कि हम किसी बहुत बड़े खेल में फंस जाएं और मोहरे की तरह इस्तेमाल किए जाएं।

रूस-यूक्रेन संघर्ष जारी है; नाटो व अमेरिका इसमें सक्रियता से शामिल हैं। चीन ज्यादा शांत रहकर, किंतु शायद अधिक अहम भूमिका निभा रहा है। हम पर रूसी तेल खरीदने के लिए अत्यधिक शुल्क लगाए जा रहे हैं, जबकि नाटो देश खुद वही कर रहे हैं। तब हम अपनी कौन सी स्थिति रखें?

आइए पहले हम अपने गिरेबान में झांकें कि हम कहां जा रहे हैं। जहां हम दूरदराज की महाशक्तियों की मनुहार-प्रशंसा करने में लगे हैं वहीं अपने भीतर भी देखेंे। हमने अपनी पिछली असफलताओं से कोई सबक नहीं सीखा, और उन्हें दोहराने पर तुले हैं। हमारे सीमावर्ती राज्यों में तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। लगभग सभी राज्यों में विकास का अभाव, गरीबी, युवाओं की समस्याओं की उपेक्षा और बेरोजगारी एक समान है। आज का महत्वाकांक्षी युवा पुराने,भ्रष्ट नेताओं की चालबाजियां समझ चुका है। ये मूल मुद्दे देश में तनावों का मुख्य कारण हैं।

यदि हमें देश में शांति-सद्भाव रखना है, तो इन मुद्दों का समाधान प्राथमिकता होनी चाहिए। ये हमारी अखंडता व संप्रभुता के लिए खतरा हैं। बांग्लादेश को ही लीजिए, जो आज हमारा शुभचिंतक नहीं। इसके नए नेताओं ने खुलेआम हमारे पूर्वोत्तर में समस्याएं पैदा करने और 'चिकन नेक' का इस्तेमाल इस क्षेत्र को शेष भारत से अलग करने वाले भाषण दिए हैं। पूर्वोत्तर सूबे, खासकर मणिपुर व नगालैंड, बेहद अशांत बने हैं। पिछले कुछ वर्षों से, मणिपुर में सामाजिक दरार गहरा रही है और वह बाकी देश से कटा पड़ा है। लद्दाख काफी समय से पूर्ण राज्य का दर्जा मांग रहा है, और चीन के साथ विवाद को देखते हुए इसे और अशांत नहीं होने देना चाहिए।

पंजाब शांत जरूर है, लेकिन घटनाओं की जिस शृंखला ने किसानों के बड़े पैमाने के विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया, उससे कट्टरपंथी तत्वों को मौका मिला। हाल में आई भीषण बाढ़ और पश्चिमी देशों से लोगों का निर्वासन भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं। युवाओं के आगे बढ़ने का रास्ता तो दूर, अगर हम बाढ़ का ढंग से प्रबंधन नहीं कर सके, तो कुछ भी अच्छे की उम्मीद नहीं की जा सकती। अगर युवाओं के पास रोज़गार नहीं होगा, तो पंजाब के आपराधिक गिरोह और पश्चिम के गैंगस्टर आपस में मिल जाएंगे और हमारी जड़ों पर चोट करेंगे। राज्य को कहीं से समुद्र तट नहीं लगता, व्यापार के लिए इसके पास कोई खुली अंतर्राष्ट्रीय सीमा नहीं ...बल्कि सीमा शत्रुतापूर्ण है। नगण्य अंतर्राष्ट्रीय हवाई संपर्क और अधिक अलगाव की ओर ले जाएगा, कोई खास विनिर्माण आधार नहीं और हमारे पास आईटी क्षेत्र का बुनियादी ढांचा नहीं। तब युवा आपराधिक गिरोहों की तोप का चारा नहीं बनेंगे तो क्या करेंगे?

हम समुदायों के बीच रार पैदा कर आसानी से फायदे का खेल खेल सकते हैं, आपस में तोड़ने के बहाने कई हैं...आक्रमणकारी, मुगल, मंगोल, आर्य- यह एक लंबी सूची है। ऐसे विभाजन लगभग सभी देशों में हैं। यहां,अंग्रेजों से सीखें कि कैसे उन्होंने स्कॉटिश, आयरिश, वेल्श, नॉर्मन, सैक्सन, वाइकिंग आदि समुदायों के साथ उचित रूप से हिस्सा साझा कर रखा है। जिन राष्ट्रों-राज्यों ने मतभेदों पर पार पाते हुए राष्ट्र-निर्माण के मूल सिद्धांतों पर ध्यान दिया, वे सब समृद्ध बने। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और आयरलैंड के विश्वविद्यालय व स्कूल सदियों से कायम और फलते-फूलते रहे हैं और वहां से पढ़े छात्रों ने ही ऐसे-ऐसे आविष्कार और विचार दिए, जिसने उन्हें आगे बढ़ाया है।

हमें युवाओं को सक्षम, सशक्त बनाने को अपनी उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान सुविधाओं को सुदृढ़ करना होगा, वे हमारे राष्ट्र निर्माण का अग्रदूत बनें, हमें अधिक स्थिरता, सुरक्षा की ओर अग्रसर करें और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालें।

लेखक मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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