सत्ताधीशों के अंतःपुरों में, और कई बार उनके बाहर भी, उनके बेटे-बहुओं, बेटियों और दामादों आदि को लेकर बनती व चलती या बनाई और चलाई जाती रहने वाली कहानियों से हम सभी वाकिफ हैं। लेकिन देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी इन सारी कहानियों के विलोम थे। साफ कहें तो अपनों व गैरों दोनों द्वारा उन्हें और उनकी देशसेवा को सिरे से भुला दिये जाने का राज भी उनके इस विलोम होने में ही है।
अपने जीते जी फिरोज ने न खुद को किसी कुल, गोत्र, वंश या पार्टी के खांचे में फिट किया, न ही उनकी राजनीति की। उनके द्वारा कुल, गोत्र, वंश और पार्टी के सर्वथा नकार का नतीजा यह हुआ कि उनके संसार से जाते ही इन सबने उनके प्रति गाढ़ा अपरिचय ओढ़कर उनकी यादों के लिए अपने दरवाजे बन्द कर लिये। स्वतंत्रता के बाद फिरोज रायबरेली के पहले सांसद चुने गये तो उनके ससुर प्रधानमंत्री थे। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी श्रीमती इन्दिरा गांधी और बेटे राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया।
दूसरे रास्ते से फिरोज की दूसरी बहू मेनका भी केन्द्र में मंत्री पद तक पहुंचीं और दूसरे पोते वरुण भी सांसद बने। उनकी एकमात्र पोती प्रियंका को कांग्रेस की सबसे बड़ी स्टार प्रचारक माना जाता है। लेकिन इनमें से कोई भी फिरोज को उस तरह अपने वंश या परंपरा का हिस्सा नहीं बताता, जिस तरह इन्दिरा और नेहरू को। बहरहाल, फिरोज जितने दिन सांसद रहे, अपने प्रधानमंत्री ससुर को नाकों चने चबवाते रहे। 1950 में प्राविंसियल पार्लियामेंट के सदस्य बनने के बाद फिरोज 1952 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित हुए तो उनकी पत्नी श्रीमती इंदिरा गांधी दूसरे कहीं ज्यादा आवश्यक कार्यभार छोड़कर उनके प्रचार अभियान की कमान संभालने आयीं।
लेकिन अभी वे पति की जीत की खुशी भी नहीं मना पाई थीं कि उन्हें अहसास होने लगा कि सांसद फिरोज उनके पिता जवाहरलाल नेहरू और उनकी सरकार के दुश्मन हो गये हैं। इसे लेकर उनके दाम्पत्य जीवन में खटास भी आयी, लेकिन फिरोज ने निजी सुख के लिए अपने राजनीतिक नजरिये से समझौता करना स्वीकार नहीं किया और अपने ससुर की जिन नीतियों से असहमत थे, उनके मुखर आलोचक बने रहे। सांसद के रूप में उन्होंने देखा कि आजादी मिलने के कुछ ही वर्षों में देश के कई औद्योगिक घराने उच्च पदस्थ कांग्रेसी नेताओं व मंत्रियों की नाक के बाल हो गये हैं और उसकी आड़ में अनेक वित्तीय अनियमितताएं कर रहे हैं तो लोकसभा में उन्होंने अपनी ही पार्टी की सरकार को घेरने में कोई कोताही नहीं बरती। 1955 में उन्होंने एक बैंक व बीमा कम्पनी के चेयरमैन रामकृष्ण डालमिया का बहुचर्चित मामला न सिर्फ उठाया, बल्कि उनके द्वारा निजी लाभ के लिए की जा रही वित्तीय हेराफेरी की पोल भी खोली। फिर तो डालमिया को कई महीने जेल में रहना पड़ा और अगले ही साल 245 जीवन बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
इस तरह फिरोज को राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया शुरू कराने का श्रेय दिया जा सकता है। 1957 में दोबारा सांसद चुने जाने के बाद भी उन्होंने पंडित नेहरू को घेरना जारी रखा। लेकिन अपनी सास कमला नेहरू का जीवन बचाने के लिए हर मुमकिन प्रयास किया। तब, जब वे क्षय रोग से पीड़ित थीं और जीवन व मृत्यु के बीच झूल रही थी। 28 फरवरी, 1936 को कमला नेहरू ने दम तोड़ा तो फिरोज उनके सिरहाने बैठे थे।
1958 में फिरोज गांधी ने सरकार नियंत्रित बीमा कंपनी एलआईसी को लपेटे में लेते हुए हरिदास मूंदड़ा घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसे स्वतंत्र भारत का पहला घोटाला माना जाता है। इससे नैतिकता के ऊंचे आदर्शों का दावा करने वाले नेहरू और उनकी सरकार की पाक-साफ छवि को तो बट्टा लगा ही, उच्च न्यायालय के एक रिटायर्ड जज के नेतृत्व में गठित आयोग द्वारा की गई जांच में आरोप सच साबित हुए और वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा।
प्रसंगवश, फिरोज गांधी इंडियन आयल कारपोरेशन के पहले चेयरमैन थे, साथ ही कांग्रेस द्वारा लखनऊ से प्रकाशित ‘नेशनल हेराल्ड’ और ‘नवजीवन’ नाम के अखबारों के प्रबन्ध निदेशक भी। उन्होंने केन्द्र सरकार से टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी के राष्ट्रीयकरण की मांग भी की थी, क्योंकि उनकी जानकारी के अनुसार टाटा कम्पनी जापानी सरकार से रेल इंजनों के ज्यादा दाम वसूल रही थी। कहते हैं कि अपने आखिरी दिनों में फिरोज बेहद अकेले पड़ गए थे। आठ सितम्बर, 1960 को दिल के दौरे से अंतिम सांस लेने से थोड़े ही दिनों पहले उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में एक कालेज की स्थापना के लिए निजी प्रयासों में जुटाये गये सवा लाख रुपये दिये थे। फिरोज का जन्म 12 सितंबर, 1912 को मुंबई (तब बंबई) के एक पारसी परिवार में हुआ था, जो गुजरात से वहां आया था, लेकिन उनका बचपन उनकी बुआ के इलाहाबाद स्थित घर में बीता। वहां 1930 में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए। मार्च, 1942 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मर्जी के खिलाफ उनकी और इंदिरा गांधी की शादी हुई तो कुछ ही महीनों बाद अगस्त, 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान उनको सपत्नीक जेल भेज दिया गया। तब फिरोज को साल भर नैनी केन्द्रीय कारागार में भी रहना पड़ा था।