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बच्चों की उम्र के मुताबिक तय हो एआई अपनाना

कक्षा तीन से कृत्रिम बुद्धिमत्ता की पढ़ाई अनिवार्य बनाना जल्दबाजी ही होगी। यह आयु बच्चों के संज्ञानात्मक, मानसिक और बौद्धिक विकास की है। स्कूलों में बालसुलभ शैक्षणिक परिवेश हो जहां अनुशासन के बीच उनमें सरलता, जिज्ञासा व खिलंदड़पन बना रहे।...

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कक्षा तीन से कृत्रिम बुद्धिमत्ता की पढ़ाई अनिवार्य बनाना जल्दबाजी ही होगी। यह आयु बच्चों के संज्ञानात्मक, मानसिक और बौद्धिक विकास की है। स्कूलों में बालसुलभ शैक्षणिक परिवेश हो जहां अनुशासन के बीच उनमें सरलता, जिज्ञासा व खिलंदड़पन बना रहे।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) अब यहां आ चुकी है, और ऐसा लगता है कि आपको और मुझे, आज नहीं तो कल, इससे समझौता करना ही पड़ेगा। फिर भी, यह बात मुझे परेशान करती है कि कक्षा तीन (मुश्किल से नौ साल का बच्चा) के छात्रों को भी एआई एक अनिवार्य विषय के रूप में अब सीखना पड़ेगा। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने फैसला लिया है कि 2026-27 के शैक्षणिक सत्र से कक्षा तीन से आगे के सभी छात्रों के लिए एआई पढ़ाया जाए।

इस कदम के अर्थ को गहराई से समझने के लिए, या जिसको शिक्षा मंत्रालय ‘आधुनिक इतिहास में महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम सुधारों में से एक’ ठहरा रहा है, इस पर, जीवन की लय, तकनीक, संस्कृति और शिक्षा शास्त्र से संबंधित दो मुद्दों पर विचार करना ज़रूरी हो जाता है। शुरुआत करते हुए, यह समझना ज़रूरी है कि इस अति-आधुनिक समय में, हम तकनीकी नवाचार के हर नए हिस्से को अंगीकार करने के लिए लगभग मजबूर हैं - और अक्सर, बिना जरा सी भी अस्पष्टता के। हालांकि, यह बाध्यता अक्सर एक प्रकार के प्रलोभन में बदल जाती है। तीन साल के बच्चों को भी स्मार्टफोन से ‘खेलते’ देखना कोई असामान्य बात नहीं है; और स्क्रीन की इस लत के परिणाम में उसके लिए खुले, विशाल आकाश को निहारना, किसी पेड़ को देखना, किसी पक्षी को उड़ते हुए देखकर रोमांचित होना या किसी फूल और तितली की लयबद्ध अठखेली को महसूस करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। जी हां, तकनीकी उपकरण मानो उनकी आत्मा में घर कर चुके हैं।

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चूंकि हम जीवन के लगभग हर क्षेत्र में तकनीक की इस घुसपैठ को सामान्य मानने लगे हैं, इसलिए कोई हैरानी नहीं कि सीबीएसई भी यह महसूस करता है कि कक्षा तीन के बच्चों को भी पीछे नहीं रहना चाहिए, और उन्हें एआई के बुनियादी अवयव ‘खेल-खेल में/संवादात्मक’ तरीकों से सीखने शुरू कर देने चाहिए। फिर, एआई को कौन ‘न’ कह सकता है, खासकर जब तकनीकी-कॉर्पोरेट वाला कुलीन वर्ग और बाज़ार-संचालित विज्ञापन तंत्र हमें इसकी ‘क्रांतिकारी’ क्षमता के बारे में लगातार याद दिलाते रहते हैं? और संभवतः, कई महत्वाकांक्षी माता-पिता यह भी सोचते हैं कि इस तेज़ी से बदलती दुनिया में, यदि उनके बच्चे जल्द से जल्द एआई के साथ सहज महसूस नहीं करेंगे, तो वे पिछड़ जाएंगे और डेटा विश्लेषण, रोबोटिक्स एवं डिज़ाइन नवाचार जैसे नए उभरते क्षेत्रों से कदमताल करने में असफल हो जाएंगे!

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हालांकि, इस तकनीकी आकर्षण के बीच, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में एआई के उपयोग के बारे में ज़रूरी नहीं कि सब कुछ आशाजनक ही हो। प्रमुख आईआईटी और आईआईएम के प्रोफेसरों ने इस प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। हाल ही में, आईआईटी-दिल्ली के निदेशक प्रोफेसर रंजन बनर्जी ने अपने छात्रों को याद दिलाया कि ‘एआई पर अत्यधिक निर्भरता आलोचनात्मक सोच कौशल जैसे आवश्यक शिक्षण परिणामों में बाधा डाल सकती है’। इसी तरह, आईआईएम में, जैसाकि एक प्रोफेसर ने गहरी पीड़ा के साथ पाया है, कुछ छात्र एआई प्लेटफॉर्म से फील्ड स्टडी तैयार करने का अनुरोध कर रहे हैं।

दरअसल, जब अन्यथा ये प्रतिभाशाली छात्र अपनी आलोचनात्मक/रचनात्मक सोच को त्यागकर एआई-मध्यस्थता वाले असाइनमेंट तैयार करने के लिए प्रलोभित होते हैं, तो वे खुद को उन चीज़ों से वंचित कर लेंगे जो उन्हें मानवीय बनाती हैं: उनकी व्यक्तिपरकता, उनका अभिकरण , उनका अनुभवजन्य ज्ञान, उनकी ‘अपूर्णता’, उनका कठिन बौद्धिक श्रम, और सबसे बढ़कर, गलतियां करने का उनका अधिकार। इसे स्वीकार करें : एआई को लेकर अत्यधिक महिमामंडन के पीछे एक कठोर तथ्य छिपा है। जैसा कि इस्राइली इतिहासकार युवाल नोआ हरारी हमें आगाह करते हैं, यह ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जिसमें मनुष्य अपने ही आविष्कार पर नियंत्रण खो सकते हैं। क्या यह भयावह नहीं है?

इसके अलावा, बतौर शिक्षक, मैं अक्सर खुद से पूछता हूं : कक्षा तीन के बच्चों को अपने संज्ञानात्मक, मानसिक, सौंदर्यपरक और बौद्धिक विकास के लिए वास्तव में क्या चाहिए? क्या यह एआई है या कुछ और? सबसे पहले, आइए हम यह स्वीकार करें कि स्कूली शिक्षा के मूल अर्थ को बदले बिना, कोई भी तकनीक बच्चों में सक्रिय सीखने की रुचि नहीं जगा सकती। स्कूलों को जेलों जैसा न बनने दें; स्कूलों को हमारे बच्चों को इस तरह ‘बांधने’ न दें कि वे अपनी सरलता, जिज्ञासा, आश्चर्य और खिलंदड़पन खो दें।

बेशक, उन्हें थोड़ा-बहुत बुनियादी गणित सीखना चाहिए। उन्हें पढ़ना, लिखना और अपनी बात कहना सिखाने की जरूरत है। उनके लिए साझेदारी बनाना, दूसरों से जुड़ना और समूह में काम करना सीखना भी उतना ही ज़रूरी है। उन्हें रोज़मर्रा की गतिविधियों के ज़रिये बुनियादी अंकगणित सीखने दें, जिनमें जोड़, घटाव, गुणा, भाग और कुछ तरह का नाप या माप करना शामिल हो।

एटलस, ग्लोब और कहानी सुनाने की कला के साथ खेलकर उन्हें बाहर की दुनिया में अपनी रुचि विकसित करने दें। उन्हें अच्छी/रंगीन किताबें देखने, छूने, इनकी गंध महसूस करने और पढ़ने दें, और पढ़ने का शौक विकसित करने दें। उन्हें अवलोकन करने और तर्क करने की क्षमता विकसित करने दें। उन्हें अपने हाथों और पैरों से काम करने दें। और सबसे ऊपर, उन्हें खेलने दें और अपनी शारीरिक/गतिज ऊर्जा को धार देने दें। उन्हें कोई फूल, कोई पेड़, कोई नदी निहारते हुए आश्चर्य और रहस्य का अनुभव करने दें। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की संवेदनशीलता ही बुद्धिमत्ता का सर्वोच्च रूप है। इसलिए, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि कक्षा तीन के छात्रों को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) की ज़रूरत नहीं। इसके बजाय, उन्हें ऐसे बालसुलभ शैक्षणिक परिवेश की जरूरत है जिसका प्रयोग रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और जिद्दू कृष्णमूर्ति जैसे लोगों ने किया था।

ज़रा सोचकर देखिए, इन कोमल बच्चों को कितना ‘ज्ञान’ ढोना पड़ रहा है: अंग्रेज़ी, विज्ञान, नागरिक शास्त्र, गणित, कंप्यूटर एप्लीकेशन और अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस! हम उनसे उनका बचपन छीनने पर क्यों तुले हैं? हम यह क्यों नहीं समझते कि अगर शुरुआती सालों में उन्हें प्यार व संभाल के साथ विकसित होने दिया जाए, और पिछड़ने के डर के बिना सीखने/अनसीखने को प्रेरित किया जाए, तो आगे चलकर वे बौद्धिक रूप से जागृत, भावनात्मक रूप से संतुष्ट और सौंदर्यबोध से ओतप्रोत नागरिक बनेंगे?

उनके लिए अपनी अतिरिक्त रचनात्मक क्षमता और आलोचनात्मक सोच को बनाए रखना मुश्किल नहीं होगा। और जैसे-जैसे वे बड़े होंगे, उनके लिए यह तय करना संभव होगा कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कब और कैसे करना है, और सबसे महत्वपूर्ण यह, कि कब इसे ‘न’ कहना है, और इस बात पर ज़ोर देना है कि मानवीय होने का मतलब तकनीक का मालिक बनना है, न कि इसका गुलाम।

क्या शिक्षा मंत्रालय या सीबीएसई से कोई सुन रहा है?

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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