संजीव कुमार शर्मा
अज़रबैजान की राजधानी बाकू में बुनियादी शिक्षा के बाद, आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मेरा यूक्रेन के शहर खमिलनित्सकी जाना तय हुआ। अगस्त 1990 का आखिरी हफ्ता था जहां तीन बिहारी ‘रूम-पार्टनर्ज़’ से बिछड़ने का दुख था, वहीं एशिया से निकल कर यूरोप पहुंचने की खुशी भी थी। करीब 2,500 किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से लगभग दो दिन में पूरी होनी थी। एक अच्छे कूपे में यह यात्रा अपने आप में एक सुखद अनुभव था। मेरे अलावा, कूपे में रूसी मां-बेटी और एक यूक्रेनी बुज़ुर्ग थे। रूसी भाषा पर पकड़ होने से जल्दी ही उनसे दोस्ती हो गई, खासकर ऐलेना के साथ, शायद हमउम्र होने के कारण। एक ही केबिन में 48 घंटे से ज्यादा का सफर, एक-दूसरे को जानने के लिए यह काफी होता है। मां और बेटी को खमिलनित्सकी के पास एक शहर विनित्सा में कुछ काम था, और फिर उन्होंने अपने शहर वोल्गोग्राद (रूस) जाना था। ऐलेना ने अपना पता और फ़ोन नंबर साझा किया।
चंडीगढ़ जितना ही छोटा, लेकिन बहुत ही साफ-सुथरा, खूबसूरत शहर था खमिलनित्सकी। दिल खुश हो गया। अच्छा हॉस्टल। कहां ‘शरीफजादे मार्ग’ वाला हॉस्टल, जहां एक कमरे में चार लोग, पूरी मंजिल के लिए साझा स्नान कक्ष, वो भी कमरे से 150-200 फुट दूर और कहां यह साफ-सुथरा ‘इंस्तितुत्सकाया मार्ग’ वाला हॉस्टल, दो और तीन लोगों वाले कमरों का एक सेट, बगल में शौचालय और बाथटब के साथ बाथरूम। मुझे दो लोगों वाला एक कमरा मिला और ‘रूम-पार्टनर’ यमन का लड़का आरिफ था। बहुत ही अच्छा। यूक्रेनियन भी बहुत अनुशासित, मिलनसार और नियमों का पालन करने वाले थे। मेरा पढ़ाई का कोई खर्चा नहीं था, हर महीने खर्च के लिए 90 रूबल स्टाइपेंड अलग से मिलता था। शहर में हम आठ-नौ भारतीय थे।
इसके बावजूद फिजा में बदलाव था, गोर्बाचोव के ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पिरिसत्रोइका’ के कारण लोग कहीं न कहीं वर्तमान व्यवस्था के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त करने और स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाने लगे थे। इसका एक बड़ा प्रमाण यूक्रेन के लोग जनवरी 1990 में दे भी चुके थे। हालांकि गोर्बाचोव द्वारा मार्च 1991 में सभी राज्यों में करवाए गए जनमत संग्रह में 70 प्रतिशत से अधिक यूक्रेनियन लोगों ने सोवियत संघ के साथ बने रहने की इच्छा व्यक्त की थी। फिर भी नाराज़गी साफ थी। ‘भ्रष्टाचार’, ‘रूसी प्रभुत्व’, ‘गिरती अर्थव्यवस्था’, ‘आवश्यक वस्तुओं की कमी’, ‘लंबी लाइनें’, ‘चेरनोबिल दुर्घटना और इसके प्रबंधन में केंद्र की गैर-संजीदगी’ और सबसे महत्वपूर्ण ‘रूसी भाषा को प्राथमिकता और लोगों की मातृभाषा को दोयम दर्जा’ जैसे अनेकों कारण थे। तीनों बाल्टिक राज्य (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) 1990 के मध्य तक स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर चुके थे।
हमारी ज़िंदगी बहुत मज़े से गुज़र रही थी क्योंकि उपरोक्त सभी कुछ बड़े शहरों तक सीमित था। सब कुछ सस्ता था। इसलिए हम पढ़ाई के साथ-साथ घूमने, दोस्तों से मिलने, दूसरे हॉस्टल या दूसरे शहरों में चले जाते थे। यहां आने के बाद मैंने ऐलेना से 2-3 बार बात भी की थी। उसने कभी मिलने की इच्छा भी जताई थी। अगस्त 1991 की छुट्टियां थीं। हमारे एक मित्र और वरिष्ठ संत लाल जी विनित्सा मेडिकल यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। बातों-बातों में मैंने संत लाल जी से ऐलेना के बारे में बात की। संत लाल जी ने कहा कि उनका एक मित्र वोल्गोग्राद में पढ़ता है। हम तीनों ने वहां जाने की योजना बनाई। संत लाल जी ने अपने मित्र से बात भी कर ली। मैंने ऐलेना को फोन कर अपने आने के बारे में बताया। अगले दिन गाड़ी थी। यात्रा लंबी थी, शायद 20-22 घंटे की।
लेकिन अगली सुबह पता चला कि गोर्बाचोव को उसके परिवार के साथ क्रीमिया वाले ‘दाचे’ में नज़रबंद कर दिया गया है। उपराष्ट्रपति व कुछ कट्टरपंथी कम्युनिस्टों ने आपातकाल की घोषणा कर उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसने गोर्बाचोव को ‘अक्षम’ करार दे कर ‘सब कुछ अच्छा करने के लिए’ सत्ता अपने हाथों में ले ली। येल्तसिन के नेतृत्व में, आम लोगों के भारी समर्थन से, यह ‘तख्तापलट’ तीन दिनों में विफल हो गया। येल्तसिन ने सारा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। ‘पार्टी’ की सभी गतिविधियों पर रोक लगा दी। दिसंबर, 1991 में यूक्रेन में एक और जनमत संग्रह हुआ, और 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ने स्वतंत्र होने की इच्छा ज़ाहिर की। दिसंबर में सोवियत संघ भंग हो गया और सभी 15 राज्य अलग-अलग देश बन गए।
इस उथल-पुथल में वोल्गोग्राद और ऐलेना तो भूल ही गए। अत्यंत महंगाई शुरू हो गई। यूक्रेन की अपनी मुद्रा, ‘कूपोन’ का इतना अवमूल्यन हो गया कि सटाईपेंड ‘मिलियनों’ में मिलने लगा। 20 कोपेक में उपलब्ध होने वाली ब्रेड पहले कुछ हजार कूपोन में और बाद में 50,000 कूपोन तक की मिलने लग गई। असली मुसीबत तब आई जब हमें कहा गया कि या तो अपने देश वापस चले जाओ या फिर पढ़ाई के लिए फीस का भुगतान करो। बहुत बड़ा तनाव पैदा हो गया। बहुत हाथ-पैर मारे, डीन-रेक्टर से मिन्नतें कीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला। फिर मास्को में भारतीय दूतावास और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के मंत्रालय को हर दूसरे-तीसरे दिन फोन करने शुरू कर दिये। वह हौसला देते, ‘चिंता मत करो, कोई समाधान निकलेगा।’ ट्रंक कॉल बुक कर के भापा जी (पिता जी) से बात भी की। भापा जी ने हौसला दिया कि चिंता मत करना, तेरी पढ़ाई बाधित नहीं होने देंगे, भले ही घर क्यों न बेचना पड़े। मेरी आंखों में आंसू आ गए। खैर! कुछ ही दिनों में पता लगा कि रूस हमारा सारा खर्च वहन करेगा। एक संरक्षक की तरह, उसने हमारे सिरों पर हाथ रखा, जो पढ़ाई के अंत तक रहा, जब तक कि मैं मास्को से मिलीं ट्रेन और हवाई जहाज की टिकटों की बदौलत अपनी पढ़ाई पूरी करके 1995 में भारत वापस नहीं आ गया।