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नाम वापस लेते वक्त का अनूठा दृश्य

तिरछी नज़र
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ऋषभ जैन

चुनावों में नाम वापस लेने वाला चरण भाव-विभोर कर देता है। सख़्त माने जाने वाले चुनाव आयोग द्वारा पत्थर दिल नेताओं से कदम पीछे करने वाले कदम उठाने की उम्मीद रखना ही अद्भुत है‌। नाम वापस लेता नेता आश्वस्त करता है कि भावनाएं अभी शेष हैं मानव के भीतर। पत्थर नहीं हुआ है वह। अभी कुछ दिनों पूर्व ही तो उसने लोक प्रतिनिधि होने के अरमान सजाये थे। चार प्रस्तावक तैयार किये थे। नामांकन के लिए जरूरी राशि जुटाई थी। रिटर्निंग अधिकारी के कार्यालय की दौड़ लगायी थी। चार लोगों के समक्ष चुनाव लड़ने का ढिंढोरा पीटा था। कितनी उम्मीदें घुमड़ी होंगी उसके मन में। जमा रहता तो जीत भी सकता था वह।

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लोकतंत्र है यह। कोई भी जीत सकता है यहां। संभव था कि अगली सरकार का बनना ही उसके समर्थन पर निर्भर हो जाता। देश भर की उम्मीदों का केंद्र बिंदु हो सकता था वह। राजयोग की दिशा में बढ़े कदमों को वापस खींच लेना अालौकिक कृत्य है। मात्र दो-चार दिनों में राजसी सुख की इच्छा का परित्याग? अहो-अहो। धन्य है वैराग्य भाव। मैं जब भी किसी नेता को नाम वापस लेता देखता हूं तो इच्छा होती है कि ‘यह महान दृश्य है कि नाम वापस ले रहा मनुष्य है टाइप की’ कोई अमर कविता लिख मारूं इस पर।

एक आम आदमी में ऐसा समर्पण देखने में नहीं आता। आम आदमी तो कांस्टेबल भर्ती परीक्षा तक से नाम वापस लेने का नहीं सोचता। वह तो उल्टा परीक्षा न होने, परिणाम न आने, नियुक्ति पत्र न मिलने जैसी तुच्छ चीजों पर हाहाकार मचाते हुए जीवन गंवा देता है। उसे चाहिए कि नेताओं से सीख ले। आम आदमी शिक्षक भर्ती टाइप तुच्छ परीक्षाओं से नाम वापस लेने लगें तो अनावश्यक प्रतिस्पर्धा तो घटेगी ही, शिकायतें, धरने, प्रदर्शनों आदि पर भी रोक लग सकती है। देश को खुशहाल बना सकती है नाम वापसी की प्रवृत्ति।

नाम वापस लेना त्याग है, तपस्या है, वैराग्य है। आलोचक इसे लोभ के वशीभूत होकर की गयी कार्यवाही बताते हैं। यह सही नहीं है। जिस महान पद की आकांक्षा में नामांकन किया गया था उसके बदले क्या दे सकता था कोई उसे। आलोचक कहते हैं कि जिस प्रकार कोई किसी के समर्थन में खड़ा होता है, उसी प्रकार कोई किसी के समर्थन में बैठ भी जाता है। हमें यह बात नहीं जंचती। यदि नेताजी को समर्थन करना होता तो वह पहले ही नहीं भरते पर्चा। हां, यह हो सकता है कि नाम दाखिल करते तक उनको पता ही न हो कि वे जिसके समर्थक हैं वे स्वयं भी खड़े होने वाले हैं चुनाव में। जब पता चलता है तो नतमस्तक होते हैं वे। मस्तक को नत किया जाये तो कदम पीछे हो ही जाते हैं। यह बड़ा गुण है, वरना कलियुग में अपने बाप के सामने नतमस्तक नहीं होते लोग। अच्छा है चुनाव की प्रक्रियाएं ऐसे गुणों को प्रोत्साहित करती हैं।

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