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त्याग से नया जीवन देने की अनूठी मिसाल

राजस्थान में गुर्दा खराब होने से जीवन हेतु संघर्षरत बेटी को उससे लगभग दोगुनी उम्र की चौरासी वर्षीय मां बुधो देवी ने अपना गुर्दा दान करके एक मिसाल पेश की है। आम तौर पर अंग दान देने वाले की अधिकतम उम्र, साठ...

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राजस्थान में गुर्दा खराब होने से जीवन हेतु संघर्षरत बेटी को उससे लगभग दोगुनी उम्र की चौरासी वर्षीय मां बुधो देवी ने अपना गुर्दा दान करके एक मिसाल पेश की है। आम तौर पर अंग दान देने वाले की अधिकतम उम्र, साठ से पैंसठ वर्ष के बीच मानी जाती है।  लेकिन बुधो देवी के संकल्प के सामने डॉक्टर झुकने को मजबूर हुए।

क्षमा शर्मा

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जयपुर का सवाई मान सिंह अस्पताल। यहां छियालीस वर्षीय गुड्डी भर्ती थी। गम्भीर बीमारी के कारण, उसके दोनों गुर्दे खराब हो गए थे। वह डायलिसिस पर थी। लेकिन एक हद के बाद डायलिसिस भी काम करना बंद कर देता है। उसकी हालत बिगड़ रही थी। इसलिए गुड्डी के लिए गुर्दे का प्रत्यारोपण जरूरी था। डाक्टर ऐसे दानदाता को ढूंढ़ रहे थे, जिससे गुड्डी का ब्लड ग्रुप मिलता हो। साथ ही वह स्वस्थ भी हो। अपने देश में आसानी से अंग दान करने वाले मिलते भी नहीं। गुड्डी की देखभाल करने के लिए वहां उसकी चौरासी वर्षीय मां बुधो देवी भी मौजूद रहती थीं। जब उन्हें इस बात का पता चला, तो उन्होंने डाक्टरों से प्रार्थना की कि वह अपनी बेटी को गुर्दा दान करना चाहती हैं। लेकिन उनकी उम्र आड़े आ रही थी। आम तौर पर माना जाता है कि अंग दान देने वाले की अधिकतम उम्र, साठ से पैंसठ वर्ष के बीच में ही हो। लेकिन बुधो देवी डाक्टरों से आग्रह करती रहीं। डाक्टरों ने जब उनके विभिन्न परीक्षण किए, तो वह स्वस्थ निकलीं। उन्हें कोई गम्भीर बीमारी भी नहीं थी। यही नहीं, उनका ब्लड ग्रुप भी गुड्डी से मिल गया।

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शुरुआती ऊहापोह और मां बुधो देवी के आग्रह को देखते हुए डाक्टरों ने इस चुनौती को स्वीकार किया। फिर बुधो देवी का गुर्दा निकालकर, उनकी बेटी को प्रत्यारोपित कर दिया। अब मां- बेटी दोनों स्वस्थ हैं। आखिर एक मां का अपनी बेटी को इससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है। उन्होंने इसकी मिसाल कायम की और बेटी का जीवन बचाया। डाक्टरों की चेतावनी के बावजूद, अपनी बड़ी उम्र के खतरों की भी परवाह नहीं की। जब बुधो देवी से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि उन्हें फैसला लेने में न कोई दिक्कत हुई, न डर लगा। उन्होंने यह भी कहा कि वह तो अपनी उम्र जी चुकीं। यदि उनके अंग दान से उनके किसी बच्चे को जीवन मिल सकता है, वह दर्द से मुक्त हो सकता है, तो वह ऐसा क्यों न करें। उन्होंने यह भी बताया कि आज तक वह कभी बीमार नहीं पड़ी हैं। इस पीढ़ी की महिलाओं ने अथक परिश्रम किया है। इसी का कारण है कि बीमारियां उनके शरीर में घर नहीं बनाती हैं। वर्ना तो इन दिनों छोटी-छोटी उम्र में ही बहुत- सी लड़कियां और महिलाएं गम्भीर रोगों का शिकार हो रही हैं। जीवन में जितना मशीनीकरण बढ़ा है, शारीरिक श्रम उतना ही घटा है। इसीलिए बीमारियां जल्दी दस्तक देने लगती हैं।

एक मां के इस वक्तव्य ने झकझोर कर रख दिया। इतना बड़ा त्याग, जिसमें जान भी जा सकती थी, इसकी कोई परवाह नहीं की। इस मां को चिंता इस बात की थी कि कैसे भी वह अपनी बेटी का जीवन बचा सकें। ऐसी मां को सलाम है। आम तौर पर तो हमारे समाज में कुछ इस तरह की अवधारणा कायम है कि माता-पिता अपनी बेटियों के जीवन पर कोई ध्यान नहीं देते। बुधो देवी ने बेटी बचाओ अभियान के बारे में हो सकता है, सुना हो, न सुना हो, लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। कायदे से तो इस मां को बड़े से बड़ा पुरस्कार भी कम पड़ जाए। वह न तो बहुत धनवान हैं, न उन्होंने बेटियों के अधिकारों के बारे में कुछ पढ़ा होगा। लेकिन ऐसी मांएं हमारे समाज में कोई अजूबा भी नहीं, जो अपने बच्चों के लिए जान की बाजी लगा देती हैं। सवाई मानसिंह अस्पताल के वे डाक्टर, जो इस आपरेशन से जुड़े थे, बुधो देवी की मजबूत इच्छाशक्ति की तारीफ कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह एक मां का प्यार तो है ही, उन लोगों के लिए भी मिसाल है, जो अंग दान करना नहीं चाहते। शायद इस उदाहरण से अन्य लोगों को प्रेरणा मिले। बुधो देवी को तीन दिन बाद ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी।

गुर्दा प्रत्यारोपण से जुड़े तीन मामलों को यह लेखिका भी जानती है। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के भी दोनों गुर्दे खराब हो गए थे। तब भी उनकी मां ने गुर्दा दान किया था। एक दूसरे मामले में दो बहनें थीं। दोनों ही अविवाहित। अचानक बड़ी बहन की तबीयत खराब रहने लगी। डाक्टरों ने बताया कि उसके दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं। बहुत दिनों तक डायलिसिस भी हुई लेकिन बड़ी बहन की तबीयत बिगड़ती गई। तब उसकी छोटी बहन ने उसे अपना गुर्दा दान करने का फैसला किया। बाद में जब उसके किसी रिश्तेदार ने कहा कि तुम्हारे सामने तो जिंदगी पड़ी थी। ऐसा क्यों किया, तो छोटी बहन ने कहा– मेरी बहन के सामने भी तो जिंदगी पड़ी थी। क्या हो गया जो उसे गुर्दा दे दिया। अब हम दोनों एक-एक गुर्दे से ही काम चला लेंगे। कम से कम मेरी बहन का साथ तो रहेगा। ये दोनों घटनाएं दशकों पहले की हैं।

तीसरी घटना कुछ साल पहले की है। दूरदर्शन में काम करने के दिनों में एक महिला ने अपनी ननद का किस्सा सुनाया। बताया कि उसकी ननद को पतली दिखने का बड़ा शौक था। इसलिए वह कुछ खाती ही नहीं थी। अन्न तो बिल्कुल नहीं। इससे उसके गुर्दे सिकुड़ गए। खराब हो गए। जान बचाने के लिए प्रत्यारोपण जरूरी था। उसके पिता का ब्लड ग्रुप भी मिल गया। वह स्वस्थ भी थे। लेकिन जिस दिन गुर्दा प्रत्यारोपण का आपरेशन होना था, उस दिन, वह अस्पताल छोड़कर भाग निकले। बहुत दिनों तक घर वापस नहीं आए। और उस लड़की की जान नहीं बचाई जा सकी।

हमारे देश में अंग दान को लेकर भ्रांतियां भी बहुत हैं। इन दिनों बहुत से अस्पतालों में ऐसे काउंसलर मौजूद होते हैं, जो निधन की स्थिति में घर वालों को समझाते हैं कि वे मृत व्यक्ति के अंग दान कर दें। इससे वह हमेशा दूसरों के भीतर जीवित रहेगा, या रहेगी। बहुत से लोगों को ये बात समझ में आती है और वे ऐसा करते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि कोई दिल दिल्ली में मिला और उसकी जरूरत चेन्नई में है। ऐसे में ग्रीन कॉरिडोर बनाकर जल्दी से जल्दी अंग को जरूरतमंद के पास पहुंचाया जाता है।

आम तौर पर आखों के कोर्निया, लिवर, गुर्दे, दिल आदि दान किए जाते हैं। डायबिटीज के वे मरीज जो जीवन भर के लिए इंसुलिन पर निर्भर होते हैं, क्योंकि उनका अग्नाशय या पैन्क्रियाज इंसुलिन नहीं बनाता। इस डायबिटीज को टाइप वन डायबिटीज कहा जाता है। जो आम तौर पर बाल्यावस्था या किशोरावस्था में हमला बोलती है और कभी ठीक नहीं होती। पहले अपने देश में टाइप वन डायबिटीज के बहुत कम मामले होते थे। लेकिन खान-पान की बदलती शैली के कारण इन रोगियों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। विशेषज्ञ कहते हैं कि यदि टाइप वन के मरीजों को पैन्क्रियाज प्रत्यारोपित कर दिया जाए, तो इंसुलिन लेने की जरूरत खत्म हो सकती है। अंग दान से सम्बंधित संस्थाओं को इस बारे में भी सोचना चाहिए। अपने देश में तीन अगस्त को अंग दान दिवस भी मनाया जाता है। वैज्ञानिक यह कोशिश भी कर रहे हैं कि मनुष्य के तमाम अंगों को प्रयोगशाला में ही उगा सकें।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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