भव्यता-दिव्यता के बीच बने समता का समाज
आर्थिक और सामाजिक विषमता ने मिलकर हमारी उपलब्धियों को कमतर बना दिया है। पिछले तीन-चार दशकों में देश ने कई मोर्चों पर विजय के झंडे फहराए हैं, पर यह विडंबना है कि एक ओर हमारी प्रगति ने नए प्रतिमान बनाए...
आर्थिक और सामाजिक विषमता ने मिलकर हमारी उपलब्धियों को कमतर बना दिया है। पिछले तीन-चार दशकों में देश ने कई मोर्चों पर विजय के झंडे फहराए हैं, पर यह विडंबना है कि एक ओर हमारी प्रगति ने नए प्रतिमान बनाए हैं, वहीं दूसरी ओर विषमता की खाइयां और चौड़ी हुई हैं।
इस दीपावली पर हमने एक और कीर्तिमान बनाया—दीये जलाने का कीर्तिमान। दीपावली भगवान राम के चौदह साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटने का पर्व है। जब राम अयोध्या लौटे तो अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाकर खुशियां मनाई थीं। यह अन्याय पर न्याय और अंधेरे पर उजाले की जीत की खुशी थी। आज भी जब हम दिवाली की अमावस्या की रात को दीये जलाते हैं, तो इसी जीत को याद करते हैं और संकल्प करते हैं कि अंधेरे के खिलाफ यह लड़ाई जारी रहेगी। जीवन के हर अंधेरे को मिटाने का संकल्प हम दोहराते हैं। घर की देहरी पर दीया जलाना इसी संकल्प का प्रतीक है।
पर यह बात भी याद रखनी होगी —दीया जलाने के संकल्प के साथ ही उसे जलाए रखने का संकल्प भी लेना होता है। जलाए रखना अर्थात तूफानी हवाओं की चुनौती को स्वीकार करना। किसी शायर ने लिखा है—‘ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाकर रखना कमाल ये है/ हवा की ज़द में दीया जलाना, जलाकर रखना कमाल ये है।’
दीया जलाना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है, पर विरोधी हवाओं की चुनौती को स्वीकारना और दीया जलाए रखना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। शायर ने इस चुनौती को स्वीकार करने को ही ‘कमाल’ कहा है। आज हम लाखों दीये जलाकर कमाल करने का दावा कर रहे हैं। साल-दर-साल अधिकाधिक दीये जलाने के कीर्तिमान स्थापित करके ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स’ में अपनी ‘सफलता’ का विवरण दर्ज कराके हम खुश हो सकते हैं, लेकिन याद रखने की बात यह है कि ऐसे कीर्तिमानों से अंधेरे दूर नहीं होते। कमाल तब होता है जब कोई एक अकेला दीपक सारे अंधेरे के अस्तित्व को चुनौती देता है। सवाल सिर्फ अंधेरे का ही नहीं, विरोधी हवाओं का भी है। इस संदर्भ में विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की बड़े अर्थ वाली एक छोटी-सी कविता याद आती है। कविता का भाव कुछ इस प्रकार है—अमावस्या की काली रात जब घिरने लगी तो सूरज कुछ उदास था। जब सूरज से इस उदासी का कारण पूछा गया, तो उसने बताया—‘मेरे अस्त होने के बाद छाए अंधेरे को कौन मिटाएगा?’
एक छोटे से दीये ने सारी दुनिया को प्रकाशित करने वाले सूरज से कहा, ‘आप चिंता मत करें, जब तक मैं हूं, अंधेरे के खिलाफ यह लड़ाई अपनी पूरी ताकत से जारी रखूंगा।’ कवि ने लिखा है—यह सुनकर सूरज को चैन आ गया। उसे विश्वास हो गया कि काली रात का यह अंधेरा उजाले को नहीं हरा पाएगा। अंधेरा लाखों दीयों से नहीं, एक दीये की ज़िद से हारता है। ईमानदारी से व्यक्त किया गया एक दीये का विश्वास भले ही सब तरफ उजाला न करे, पर कोई एक किरण भी सवेरा होने का विश्वास जगाने के लिए पर्याप्त होती है। दिवाली हर साल हमें यही अहसास कराने आती है। हम लाखों दीये जलाकर अंधेरे को हराने का मिथ्याभिमान जीने लगे हैं। यह समझना ही नहीं चाहते कि दस कमरों के मकान में रहने वाला व्यक्ति रहता तो एक ही कमरे में है, बाकी कमरों में तो उसका घमंड ही रहता है! राम की कथा हमें यही समझाती है कि अपनी ताकत का घमंड हमें उस रावण की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है, जो अन्याय और अत्याचार का प्रतीक है। मनुष्यता की लड़ाई रावण से नहीं, रावण की राक्षसी प्रवृत्ति से है।
कई-कई रूप हैं इस राक्षसी प्रवृत्ति के—अन्याय, अत्याचार और विवेकहीनता से पलती है यह प्रवृत्ति। जीवन का असली अंधेरा यही प्रवृत्ति है। आदमी को अपनी मानवता बचाए रखने के लिए इसी अंधेरे को हराना होता है। प्रकाश चाहे सारे जग को आलोकित करने वाले सूरज का हो या छोटे से दीये का—संदेश एक ही देता है, मनुष्यता का संदेश। राम इसी मनुष्यता की जीत के प्रतीक हैं। राम ने कथनी से नहीं, करनी से मनुष्यता की यह लड़ाई जीती थी। निषाद को गले लगाने वाले राम ने समता का संदेश दिया। भीलनी के झूठे बेर खाकर, वानर और राक्षस जाति के आदिवासियों को अपनी विजय का माध्यम बनाकर, मर्यादा पुरुषोत्तम ने यह स्पष्ट कर दिया था कि आदर्श समाज-व्यवस्था में ऊंच-नीच के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। अपने घर की दीवारें हमें खुद उठानी हैं, छत स्वयं डालनी है। अपने घर के परिष्कार का बोझ भी घर-परिवार में रहने वालों का होता है। लाखों दीयों से घर को सजाने से कहीं बेहतर है एक दीये से आंगन में उजाले का बीज बोना। लाखों दीये जलें, इसमें कोई बुराई नहीं, पर सरयू के तट पर इतने दीये जलाने के बजाय लाखों वंचितों और दलितों के घरों में रोशनी करना क्या यह ज़्यादा ज़रूरी नहीं है? उन बच्चों की सुध कौन लेगा जो हज़ारों अधजले दीयों के बचे तेल को इकट्ठा करने निकल पड़ते हैं? उनकी इस विवशता को कौन समझेगा? यह भी याद रखना होगा कि भगवान राम ने वनवासियों को अपना सहयोगी बनाया था, पर हम उन्हें अपने निकट तक आने देना ही नहीं चाहते। सामाजिक विषमता का यह एक उदाहरण है, पर यह अकेला उदाहरण नहीं। आर्थिक और सामाजिक विषमता ने मिलकर हमारी उपलब्धियों को कमतर बना दिया है। पिछले तीन-चार दशकों में देश ने कई मोर्चों पर विजय के झंडे फहराए हैं, पर यह विडंबना है कि एक ओर हमारी प्रगति ने नए प्रतिमान बनाए हैं, वहीं दूसरी ओर विषमता की खाइयां और चौड़ी हुई हैं।
सन् 2021 की ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया था कि महामारी (मार्च, 2020 से नवंबर, 2020) के दौरान देश के 84 प्रतिशत परिवारों की आमदनी में गिरावट आई थी। वह समय की मार हो सकती है, लेकिन उसके बाद भी, पिछले दो-तीन वर्षों में आर्थिक विषमता कम नहीं हुई। ऑक्सफैम ने निष्कर्ष के रूप में कहा था—‘भारत में संपदा की गैरबराबरी उस आर्थिक व्यवस्था का परिणाम है जो गरीब और हाशिये पर के लोगों के खिलाफ, चरम धनिकों के पक्ष में धांधली का शिकार है।’
‘भव्य और दिव्य’ उपलब्धियों की हमारे नेतागण अक्सर चर्चा करते हैं। इस भव्यता और दिव्यता के नए-नए कीर्तिमान स्थापित होते हैं। यह दुर्भाग्य ही है कि कीर्तिमानों के इस शोर में उनकी आवाज़ें दब-सी जाती हैं, जो भगवान राम की नगरी में दीये गिनने के बजाय उस तेल को समेटने में व्यस्त हो जाते हैं जो जलते दीपकों के बुझ जाने पर बच जाता है। और यह भी कोई कम विडंबना नहीं है कि एक ओर तो गरीबी कम होने के दावे किए जा रहे हैं, और दूसरी ओर गरीब और अमीर के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या भी लगातार नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है!
सवाल इन कीर्तिमानों की चकाचौंध में इस सत्य को भुला देने का है कि देश की अस्सी प्रतिशत आबादी आज भी दो समय की रोटी जुटाने के लिए सरकार के पांच किलो मुफ्त अनाज पर निर्भर है। आंकड़े बता रहे हैं कि देश की कुल संपदा का 77 प्रतिशत हिस्सा देश के ऊपरी पायदान पर रहने वाली 10 प्रतिशत जनता के पास है —और हकीकत यह भी है कि यह आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है।
\कुछ ऐसी ही स्थिति सामाजिक विषमता की है। जाति, लिंग, धर्म आदि के आधार पर जो विषमताग्रस्त समाज हमने बना रखा है, वह भव्यता और दिव्यता के हमारे सारे दावों को झुठला रहा है। समानता और बंधुता का जो आदर्श हमने अपने संविधान में अपने लिए लागू किया था, वह लगातार कमज़ोर बनता जा रहा है। एक सांस्कृतिक समरसता वाला समाज रचने का वादा हमने अपने आप से किया था, पर उस वादे को जैसे हमने भुला दिया है। जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण के नाम पर हम अपने आप को लगातार बांटते जा रहे हैं।
इस स्थिति से उबरना होगा, इस स्थिति को बदलना होगा। एक कीर्तिमान इस बात का स्थापित होना चाहिए कि 140 करोड़ भारतीय सारी विषमताओं और विभिन्नताओं को भुलाकर एक भारतीय के रूप में समानतामूलक समाज की रचना कर सकते हैं।
तब असली उजाला होगा— उस उजाले का कीर्तिमान रचना है हमें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।