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तमिलनाडु में हिंदी-विरोध का नया दौर

तमिलनाडु में भाषा केवल शिक्षा या संस्कृति का विषय नहीं है। द्रविड़-राजनीति ने इसके सहारे ही सफलता हासिल की है। द्रविड़ आंदोलन, जिसने डीएमके और एआईएडीएमके दोनों को जन्म दिया, भाषाई आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित था। प्रमोद जोशी हिंदी...

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तमिलनाडु में भाषा केवल शिक्षा या संस्कृति का विषय नहीं है। द्रविड़-राजनीति ने इसके सहारे ही सफलता हासिल की है। द्रविड़ आंदोलन, जिसने डीएमके और एआईएडीएमके दोनों को जन्म दिया, भाषाई आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित था।

प्रमोद जोशी

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हिंदी की पढ़ाई को लेकर तमिलनाडु में एक बार फिर से तलवारें खिंचती दिखाई पड़ रही हैं। राज्य के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने मंगलवार को एक विशाल विरोध-प्रदर्शन में चेतावनी दी कि हिंदी थोपने वाली केंद्र सरकार के खिलाफ एक और विद्रोह जन्म ले सकता है। उनके पहले मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राज्यों पर शिक्षा-निधि के मार्फत दबाव बनाने का आरोप लगाया था। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में द्रमुक ने नई शिक्षा नीति (एनईपी) और तीन-भाषा फॉर्मूले की आलोचना करके माहौल को गर्मा दिया है।

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तमिलनाडु में भाषा केवल शिक्षा या संस्कृति का विषय नहीं है। द्रविड़-राजनीति ने इसके सहारे ही सफलता हासिल की है। द्रविड़ आंदोलन, जिसने डीएमके और एआईएडीएमके दोनों को जन्म दिया, भाषाई आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित था। राष्ट्रीय आंदोलन के कारण इस राज्य में भी कांग्रेस, मुख्यधारा की पार्टी थी, पर भाषा पर केंद्रित द्रविड़ आंदोलन ने राज्य से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया और आज तमिलनाडु में कांग्रेस द्रमुक के सहारे है। इस राज्य में भाषा-विवाद लगातार उठते रहते हैं। पिछले साल संसदीय शीत-सत्र में 5 दिसंबर को विरोधी दलों के सदस्यों ने ‘भारतीय न्याय संहिता’ के हिंदी और संस्कृत नामों के विरोध में सरकार पर हमला बोला। उन्होंने सरकार पर ‘हिंदी इंपोज़ीशन’ का आरोप लगाया। एक दशक पहले तक ऐसे आरोप आमतौर पर द्रमुक-अद्रमुक और दक्षिण भारतीय सदस्य लगाते थे। अब ऐसे आरोप लगाने वालों में कांग्रेस पार्टी भी शामिल है।

अप्रैल, 2022 में गृहमंत्री अमित शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा कि हिंदी को पूरे देश में स्थानीय भाषाओं के बजाय अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। उनके अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तय किया है कि सरकार का कामकाज हिंदी में हो। उनके इस बयान के पीछे ‘हिंदी-विरोधियों’ को साम्राज्यवाद की गंध आई। शाह ने कहा कि हिंदी को देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचाने के प्रयास होने चाहिए। जब विभिन्न राज्यों के नागरिक संवाद करते हैं, तो ‘यह भारत की भाषा में होना चाहिए।’

उनके इस वक्तव्य के अलावा, नई शिक्षा-नीति के अंतर्गत देशभर के स्कूलों में कक्षा 10 तक परोक्ष रूप में हिंदी को अनिवार्य बनाने की केंद्र सरकार की योजना पर तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। 10 अप्रैल को, तमिलनाडु के सत्तारूढ़ दल द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम ने केंद्र सरकार को हिंदी थोपने के किसी भी नए प्रयास के खिलाफ चेतावनी दी और लोगों से इसका विरोध करने का आह्वान किया। पार्टी के मुखपत्र मुरासोली में लिखा गया, यह कदम देश की अखंडता को नष्ट कर देगा। भारतीय जनता पार्टी को दक्षिण में प्रवेश तो मिल गया है, पर तमिलनाडु में वह अभी हाशिए पर है। पिछले कुछ समय से वह अपने राज्य प्रमुख अन्नामलाई के जरिये राज्य के एक तबके को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। क्या इस राज्य में हिंदी-समर्थक पार्टी के सफल होने की कोई गुंजाइश है? राज्य में हिंदी की पढ़ाई को उत्सुक लोग भी हैं, जिन्हें लगता है कि रोज़गार के लिए हिंदी का ज्ञान भी ज़रूरी है। भाजपा कार्यकर्ता अब मार्च से मई तक एक सर्वेक्षण करने की योजना बना रहे हैं, जिसमें वे तीन-भाषा नीति पर तमिलनाडु भर के परिवारों से बातचीत करेंगे और अपने निष्कर्ष राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपेंगे।

राज्य सरकार हिंदी के पठन-पाठन के दरवाज़े बंद रखना चाहती है। उसे लगता है कि एक बार दरवाज़े खुले तो राजनीति का रंग-रूप बदल जाएगा। बहरहाल तमिल-बगावत के स्वर एनईपी के तहत तीन-भाषा सूत्र से जुड़ी शर्तों और समग्र-शिक्षा कार्यक्रम लिए केंद्रीय धन जारी करने से जुड़े मतभेदों के कारण सुनाई पड़े हैं। एनईपी के विरोधियों का तर्क है कि यह नीति परोक्ष रूप से क्षेत्रीय भाषाओं की तुलना में हिंदी और संस्कृत को बढ़ावा देती है। केंद्र सरकार ने राज्य को 2,152 करोड़ रुपयों का आवंटन इस आधार पर रोक रखा है, क्योंकि उसने ‘पीएम श्री स्कूलों’ और एनईपी को स्वीकार नहीं किया है।

डीएमके और उसके सहयोगी दलों के चेन्नई में आयोजित विरोध प्रदर्शन में उदयनिधि ने कहा, हम न तो भीख मांग रहे हैं और न आपकी निजी संपत्ति। यह हमारा वैध अधिकार है। संविधान का कोई भी अनुच्छेद तीन-भाषा की बात नहीं करता है। तमिलनाडु इस फॉर्मूले को कभी स्वीकार नहीं करेगा। राज्य में हिंदी के प्रवेश से तमिल का विलोपन हो जाएगा जैसा राजस्थानी, भोजपुरी और उत्तर भारत की अन्य भाषाओं के साथ हुआ है।

हाल में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा था कि नई शिक्षा-नीति के अनुपालन का फंड जारी करने में तीन-भाषा सूत्र लागू करने की शर्त होगी। जब तक तमिलनाडु एनईपी को पूरी तरह से लागू नहीं करेगा, तब तक समग्र शिक्षा निधि जारी नहीं की जाएगी। उन्होंने कहा, नई शिक्षा-नीति में हिंदी की अनिवार्यता नहीं है। तमिलनाडु के छात्र चाहें, तो तमिल और अंग्रेजी के अलावा कोई भी तीसरी भारतीय-भाषा पढ़ सकते हैं। नई शिक्षा नीति, हिंदी नहीं थोप रही है, बल्कि छात्रों को एक अतिरिक्त भाषा सीखने का अवसर प्रदान कर रही है। उन्होंने सवाल किया है कि अन्य राज्यों के विपरीत तमिलनाडु तीन-भाषा फॉर्मूले का विरोध क्यों कर रहा है? तमिलनाडु में हिंदी-विरोध का इतिहास करीब एक सदी बहुत पुराना है, जो 1930 के दशक से शुरू हुआ था। तब यह मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। वर्ष 1937 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने राज्य में हिंदी की अनिवार्य पढ़ाई का फैसला किया था, जिसके बाद राज्य में पहला हिंदी-विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन ने द्रविड़-राजनीति की नींव डाली। हिंदी विरोधी प्रदर्शन आज़ादी के बाद भी जारी रहे, जिसमें 1965 में छात्रों का आंदोलन भी शामिल है।

वर्ष 1959 में जवाहरलाल नेहरू के आश्वासन और उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री सरकार द्वारा राजभाषा अधिनियम, 1963 पारित करने के बाद राज्य में स्थिति सामान्य हुई। यह विरोध पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। हिंदी को लेकर जब भी कोई गतिविधि होती है, यह विरोध शुरू हो जाता है। तमिलनाडु ने एनईपी-2020 का विरोध किया। उसके अलावा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों ने भी अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं, पर तमिलनाडु ने इसे लागू नहीं होने दिया, जबकि ज्यादातर राज्यों ने इसे लागू किया। तमिलनाडु 1967 से दो-भाषा फार्मूले (मातृभाषा तमिल और अंग्रेजी) का पालन कर रहा है। उस वर्ष सीएन अन्नादुराई के नेतृत्व में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम सत्ता में आई थी। उसके बाद से राज्य में द्रमुक और अन्ना द्रमुक पार्टी की सरकारें ही सत्ता में आई हैं। द्रविड़ दलों ने लंबे समय से मांग की है कि ‘शिक्षा’ को समवर्ती सूची से हटाकर राज्य सूची में वापस लाया जाए।

यह मसला भारतीय संघवाद की विसंगतियों को भी रेखांकित करता है। भारतीय राष्ट्रवाद के विकास से जुड़े अंतर्विरोधों की प्रतिध्वनि भी इसमें सुनाई पड़ती है। स्वतंत्रता के पहले ‘द्रविड़नाडु’ नाम से अलगाववादी नज़रिया भी उभरा था। इंदिरा गांधी के दौर में केंद्र को मजबूत बनाने की जो कोशिशें हुईं, उनमें शिक्षा का मसला भी शामिल था। संविधान की सातवीं अनुसूची संघ और राज्यों के बीच कानून बनाने की शक्तियों के आवंटन को निर्दिष्ट करती है। 1976 में संविधान में 42वें संशोधन तक शिक्षा राज्य सूची में थी। 1976 में स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के बाद इसे समवर्ती सूची में लाया गया। अब शिक्षा समवर्ती सूची में है।

लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।

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