भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ जन आंदोलन जरूरी
राजनीति में शुचिता की बात अवश्य करेंगे राजनेता, पर उनकी करनी इसके विपरीत ही होगी। इसलिए, यह दायित्व जागरूक नागरिक का बनता है कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं के खिलाफ एक सतत मुहिम चलाये।
लब्धप्रतिष्ठ रूसी साहित्यकार सोलजेनित्सिन ने कहीं लिखा था, ‘हम जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं, वे जानते हैं कि हम जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं... लेकिन वे फिर भी झूठ बोलते रहते हैं’- इस वाक्य में ‘वे’ की जगह हमारे राजनेता लिख दिया जाये और ‘हम’ की जगह भारत की जनता तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आये दिन हम अपने नेताओं के झूठ सुनते रहते हैं और ऐसा हर झूठ बोलकर हमारे नेता यह समझते हैं कि उन्होंने हमें यानी देश के मतदाताओं को मूर्ख बना लिया है। इसका ताज़ा उदाहरण है संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन सदन के पटल पर रखा गया संविधान संशोधन विधेयक। तीखी बहस और हंगामे के बीच यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जा चुका है। समिति कब और क्या सिफारिश देगी यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर सिफारिश कुछ भी हो, संसद में वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह तय है कि बिना दो तिहाई बहुमत के ऐसा कोई संशोधन लागू नहीं हो सकता। तो फिर यह विधेयक सदन में क्यों रखा गया है? इसका एक स्पष्ट उत्तर तो यही है कि देश में निकट भविष्य में होने वाले चुनावों को देखते हुए सत्तारूढ़ पक्ष महत्वपूर्ण, और उसके लिए परेशान करने वाले, मुद्दों से मतदाता का ध्यान बंटा सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं की प्रस्तावित संशोधन आकर्षक भी है और महत्वपूर्ण भी। इसके अनुसार केंद्र में प्रधानमंत्री और मंत्रियों समेत राज्यों के मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों को यदि किसी ऐसे आरोप में तीस दिन से अधिक समय तक जेल में रहना पड़ता है तो उन्हें पद से त्यागपत्र देना होगा, अन्यथा उन्हें पद से हटा दिया जायेगा। आकर्षक लगता है यह प्रस्ताव। एक हद तक ज़रूरी भी। कौन नहीं स्वीकारेगा कि भ्रष्टाचारियों को मंत्री-पद पर बने रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। और यह भी एक हकीकत है कि हमारे देश में ऐसे राजनेताओं की कोई कमी नहीं है जिन पर भ्रष्टाचार और अन्य आपराधिक मामलों के आरोप हैं। ऐसे में, संविधान में संशोधन का जो विधेयक सरकार ने पटल पर रखा है उसका स्वागत होना चाहिए।
लेकिन सवाल उठता है कि आरोप लगना मात्र ही किसी को कथित अपराध की सज़ा देने का आधार कैसे बन सकता है? कोई भी आरोपी तब तक सज़ा का पात्र नहीं होता जब तक अपराध प्रमाणित नहीं हो जाता, आरोप भले ही कितना ही गंभीर क्यों न हो, जब तक प्रमाणित नहीं हो जाता, अपराध नहीं कहलाता। तो फिर सज़ा कैसे दी जा सकती है?
लेकिन यहीं यह सवाल भी उठता है यदि आरोपों के आधार पर सज़ा नहीं दी जा सकती तो क्या मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को यह अवसर और अधिकार मिलना चाहिए कि वे जेल में बैठकर भी सरकार चलाते रहें? दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का उदाहरण हमारे सामने है, महीनों तक वे जेल में रहे– और जेल से ही सरकार चलाने की बातें भी कहते रहे!
तो फिर क्या किया जाये? जितना आसान लगता है यह प्रश्न, उत्तर उतना ही कठिन लगता है। प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया है कि यदि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई भी मंत्री किसी ऐसे आपराधिक मामले में गिरफ्तार होकर लगातार तीस दिन तक हिरासत में रहता है, जिसके लिए पांच वर्ष या उससे अधिक की सज़ा का प्रावधान है, तो वह पद पर नहीं बना रह सकता। लेकिन तब क्या होगा यदि न्यायालय उसे निरपराध घोषित कर देता है? विधेयक के समर्थक उत्तर में पुनर्नियुक्ति का प्रावधान होने का तर्क रखते हैं! वे कहते हैं विधेयक शासन को संदेह से मुक्त रखने की प्रारंभिक प्राथमिकता ही तय करता है। लेकिन इस सवाल का क्या जवाब है कि इकत्तीसवें दिन स्वत: ही सज़ा मिल जाने को कानून का शासन कैसे कहा जा सकता है? यह सब देखते हुए ही इस तरह का संशय किया जा रहा है कि यह कार्रवाई गंभीर मुद्दों से ध्यान बांटने और चुनावी हितों को ध्यान में रख कर की गयी है। बहरहाल, मामला गंभीर है। भ्रष्ट राजनीति और भ्रष्ट राजनेताओं से मुक्ति का कोई उपाय तो खोजना ही होगा। हमारे यहां राजनीति का जो अपराधीकरण हुआ है उसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। एक ज़माने में राजनेता अापराधिक वर्गों का सहयोग लिया करते थे, अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए। फिर सहयोग देने वालों को लगा, वे किसी को चुनाव जीतने में मदद कर सकते हैं तो स्वयं राजनीति में क्यों नहीं उतर सकते?
इस सोच का नतीजा सामने है। चुनाव अधिकार संस्था (ए.डी.आर) की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश के तीस मुख्यमंत्रियों में से 40 प्रतिशत ने पिछले चुनाव नामांकन- पत्र में अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी पर सर्वाधिक 89 आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंध्र-प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू 19 मामलों के साथ दूसरे नंबर पर हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैय्या पर 13 मामले चल रहे हैं। इसी तरह झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर 5, महाराष्ट्र के फड़नवीस पर चार, हिमाचल के मुख्यमंत्री पर चार और केरल तथा पंजाब के मुख्यमंत्री पर भी क्रमश: दो और एक मामले दर्ज हैं। मामले दर्ज होने का मतलब यह नहीं है कि आरोपी अपराधी ही है। हमारी न्याय-व्यवस्था यह मानती है कि भले ही दस अपराधी छूट जाएं पर एक भी निरपराध को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन सवाल है, यदि एक भी आरोप सही है तो व्यक्ति को शासन करने का अधिकार या अवसर क्यों मिले?
किसी भी सभ्य और उत्तरदायी समाज में राजनीति का अपराधीकरण चिंता और शर्म की बात होनी चाहिए। राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की बढ़ती भागीदारी पर चिंता तो अक्सर व्यक्त की जाती है, पर इसे रोकने की कोई ईमानदार कोशिश कोई नहीं करता। सवाल नीति का नहीं, नीयत का है। इसी नीयत का परिणाम है कि गंभीर आरोपों से घिरे लोग भी राजनीतिक दलों के लिए चुनावी विवशता बन जाते हैं। सवाल इस नीयत को बदलने का है। यह काम ठोस और ईमानदार कार्रवाई की मांग करता है, और हमारी राजनीति में इसका नितांत अभाव है। हमारी राजनीति के कर्ता-धर्ताओं से पूछा जाना चाहिए कि कल तक जिसे वे अपराधी घोषित करते थे, दल-बदल करते ही वह व्यक्ति ईमानदार कैसे हो जाता है? राजनेताओं की इसी करनी का परिणाम है कि राजनीति को शुद्ध करने की कोशिशों पर जनता को विश्वास नहीं होता। बात सोलजेनित्सिन की बात तक पहुंचती है– राजनेता यह जानते हैं कि हम जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं... फिर भी...।
यह अपेक्षा करना कि राजनीति में शुचिता की बात करने वाले सचमुच ईमानदार बन जाएंगे एक अनहोनी बात लगती है। पर इसे संभव बनाने की दिशा में लगातार सक्रिय रहने की आवश्यकता है। सजग रहने की भी। राजनीति में शुचिता की बात अवश्य करेंगे राजनेता, पर उनकी करनी इसके विपरीत ही होगी। इसलिए, यह दायित्व जागरूक नागरिक का बनता है कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं के खिलाफ एक सतत मुहिम चलाये। मैं भ्रष्ट राजनेता को वोट नहीं दूंगा– इस आशय का एक अभियान चलना चाहिए देश में। और यह अभियान चलते रहना चाहिए। लगातार। राजनीति को अपराध से मुक्त करने का यही एक तरीका है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।