विश्वनाथ सचदेव
खबर छोटी-सी है, पर इसका प्रभाव बड़ा होने वाला है। महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के छोटे से गांव हेरवडे में घटी थी यह घटना। गांव की पंचायत ने एक निर्णय लेकर गांव की विधवाओं को फिर से चूड़ियां पहनने और माथे पर बिंदिया लगाने का अधिकार दिये जाने की घोषणा की है। यह घोषणा अपने आप में किसी क्रांति से कम नहीं है। यह सही है कि 21वीं सदी के भारत में, खासतौर पर शहरी इलाकों में, विधवाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है। पर यह सच्चाई आज भी हमारे समाज के माथे पर एक कलंक की तरह उजागर है कि विधवा होना किसी महिला का दुर्भाग्य नहीं, उसका अपराध माना जाता है और इस अपराध की सज़ा के रूप में न वह अच्छे कपड़े पहन सकती है, न हाथों में चूड़ियां। माथे पर बिंदिया लगाने का अधिकार भी उससे छिन जाता है। यही नहीं, परिवार में मांगलिक कार्यों में उसे पीछे ही रहने की सलाह दी जाती है। हेरवडे गांव के लोगों ने इस स्थिति को बदलने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया है।
हेरवडे गांव की पंचायत द्वारा लिये गये इस निर्णय के कुछ ही दिन बाद कोल्हापुर जिले के ही मानगांव में भी इसी आशय का निर्णय लिया गया और फिर पुणे के उदयचीवाड़ी गांव ने इस निर्णय को क्रियान्वित भी कर दिया- गांव की पंचायत ने एक सार्वजनिक समारोह आयोजित कर विधवाओं को फिर से चूड़ियां पहनायीं, उनके माथे पर बिंदिया सजायी।
यह सदियों पुरानी एक ग़लत परंपरा की समाप्ति की घोषणा थी। स्थानीय अखबारों ने इस समाचार को भीतर के पन्नों में जगह अवश्य दी, पर मुझे कहीं पहले पन्ने पर यह समाचार नहीं दिखा। सम्पादकीय पृष्ठ पर इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी। टीवी चैनलों में भी इस समाचार को वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। कहीं कोई बहस नहीं, कोई चर्चा नहीं। मुझे लगता है, यह चुप्पी किसी समाचार के बारे में हमारी समझ पर एक गंभीर टिप्पणी है। किसी भी सभ्य समाज में यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि सदियों पुरानी किसी ग़लत परंपरा के खिलाफ उठा कोई कदम हमारी चेतना को झंकृत क्यों नहीं करता?
यह सही है कि आज सधवा होने के चिन्ह धारण करना कम से कम समाज के समझदार कहे जाने वाले तबके में विवाद का मुद्दा नहीं माना जाता, पर ऐसा भी नहीं है कि स्थिति सचमुच बदल गयी है। हम इस हकीकत से आंख नहीं चुरा सकते कि वृंदावन और काशी में आज भी विधवा आश्रम हैं जहां विधवाएं अपराधी होने के भाव के साथ जीवन जी रही हैं। उनका अपराध यह है कि उनके पतियों का निधन उनसे पहले हो गया। उन्हें एक खास तरह की ज़िंदगी जीने के लिए विवश करके हमारा समाज अपनी मान्यताओं-परंपराओं के पालन का संतोष ओढ़ना चाहता है। संतोष के इस भाव पर सवालिया निशान लगना ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि ऐसा निशान लगाने की कोशिशें नहीं हुईं। पर सारी कोशिशों के बाद, सामाजिक विकास के सारे दावों के बावजूद, आज भी हमारे समाज में किसी महिला का विधवा होना उसका कसूर ही माना जाता है। अपवाद हैं, पर नियम यही है कि यदि कोई महिला विधवा हो गयी है तो उसे न अच्छे कपड़े पहनने का अधिकार है, न सजने-संवरने का।
यही नहीं, परंपरा के नाम पर उसे हाथों की चूड़ियां भी छोड़नी पड़ती हैं, माथे की बिंदिया भी। पति के शव पर शोक मनाती विधवा की चूड़ियां ज़बर्दस्ती तोड़ दी जाती हैं। माथे का सिंदूर पोंछ दिया जाता है। और ऐसा सिर्फ अनपढ़ समाजों में ही नहीं होता। मुझे याद है, मुंबई जैसे महानगर में एक पढ़े-लिखे परिवार में पति के असामयिक निधन के बाद उसकी कॉलेज में पढ़ाने वाली पत्नी के हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती चूड़ियां तोड़ने की रस्म निभायी गयी थी। और जब ऐसा किया जा रहा था तो उस महिला ने चीखकर कहा था- नहीं…। वह चीख सिर्फ पीड़ा का प्रकटीकरण नहीं था, वह एक ऐसी स्थिति के अस्वीकार के लिए क्रंदन था जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती। वह चीख आज भी मेरे कानों में गूंज जाती है।
हेरवडे, मानगांव और उदयची वाडी गांवों की पंचायतों ने विधवाओं के साथ जुड़ी प्रतिगामी परंपराओं के विरुद्ध आवाज़ उठाकर ऐसी ही किसी चीख से उठे सवालों का जवाब देने की सार्थक पहल की है। इस पहल का स्वागत होना ही चाहिए। और इसका अनुकरण भी।
ऐसा नहीं है कि हेरवडे या मानगांव के लोगों ने इस बदलाव को सहज ही स्वीकार कर लिया। समय लगा उन्हें इस प्रतिगामी परंपरा का अनौचित्य समझाने में। बदलाव के पक्षधर सफल हुए और यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि तीनों गांवों में पंचायतों ने यह निर्णय सर्वसम्मति से किया। यह भी महत्वपूर्ण है कि विरोध सिर्फ बड़े-बूढ़ों की तरफ से ही था। युवा वर्ग ने इस बदलाव की ज़रूरत और महत्ता को आसानी से समझ लिया। युवाओं की यह सहमति आने वाले बेहतर कल का संकेत देने वाली है। आवश्यकता इस सहमति को विस्तार देने की है।
आज, जब नारी जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही है, यह सवाल भी उठना ज़रूरी है कि सधवा होने का प्रणाम साथ लेकर चलने की शर्त नारी पर ही क्यों लगायी जाये? पुरुष ऐसा कुछ धारण क्यों नहीं करते जिससे यह पता लग सके कि वह शादीशुदा है? सच तो यह है कि चूड़ी, बिंदी आदि के माध्यम से पुरुष-सत्ता की मानसिकता वाले समाज ने अपने वर्चस्व को विस्तार देने की ही कोशिश की है। चूड़ी, बिंदिया, शृंगार, ये सब, नारी को विशेष नहीं बनाते। इन्हें धारण करना, न करना नारी का वैयक्तिक निर्णय है।
यह एक संयोग ही है कि इस संदर्भ में बदलाव की शुरुआत उसी पुणे के एक गांव से हुई है जहां लगभग पौने दो सौ साल पहले, 1848 में, सावित्रीबाई फुले ने पहला महिला बालिका विद्यालय खोला था। यह विद्यालय वस्तुत: स्त्रियों को पुरातन रूढ़ियों से मुक्त कर एक खुला आसमान देने का एक क्रांतिकारी कदम था। यह एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी। आज पुणे के उदयची वाडी और कोल्हापुर के हेरवडे तथा मानगांव से भी ऐसी ही एक क्रांति की आवाज़ उठी है। इस आवाज़ के सुने जाने की ही नहीं, इसके सार्थक्य को समझे जाने की भी आवश्यकता है। एक गांव की पंचायत का सर्वसम्मत निर्णय जब पूरे समाज का निर्णय बनेगा तभी वह सामाजिक बदलाव हो पायेगा, जो हमारे बेहतर मनुष्य होने की एक शर्त है। अब भी समय है, हमारा मीडिया इस बदलाव की महत्ता को समझे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।