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विशेष बच्चे बनेंगे संवाद निपुण

अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस आज

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डॉ. ऋतु चौधरी
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डॉ. ऋतु चौधरी

अपनी इच्छा जाहिर करना, दूसरे के प्रति किस तरह का व्यवहार करना जैसे गुण या तो प्राकृतिक तौर पर बच्चे में आते हैं अथवा अभिभावक उसे धीरे-धीरे सिखाते हैं, लेकिन कुछ बच्चे ‘ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर’ से पीड़ित होते हैं। ऐसे बच्चों को सामाजिक संवाद (व्यावहारिक कौशल) में दिक्कत होती है। सर्वप्रथम, हो सकता है कि ऐसे बच्चे कही गई कोई भी बात समझ न पाएं। अगर समझ भी लेते हैं तो वे इसका ढंग से इस्तेमाल बहुत कम कर पाते हैं। मसलन, अपनी मांग को एक शब्द में समझा देना। कई बच्चे बोले गए कई शब्द तो समझ लेते हैं, लेकिन फिर भी उन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है, क्योंकि विषयवस्तु पर बने रहने में उन्हें मुश्किल होती है। ऐसे बच्चों में बोली गई बात को बार-बार दोहराने, बेमतलब की बातें बोलने, अपनी बात बताते वक्त तारतम्य ठीक न रख पाने, बातचीत में हावी होने की कोशिश और दूसरे की बात न सुनने जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। ऐसे बच्चों के लिए हियरिंग एंड स्पीच थेरेपी कारगर रहती है।

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सोशल कम्युनिकेशन (सामाजिक संवाद) या प्रैगमैटिक्स (व्यावहारिकता) से अभिप्राय है कि किसी सामाजिक अवस्था में बच्चा कैसी भाषा का इस्तेमाल करता है। विशेष थेरेपी संवाद निपुण बनाने में मददगार रहती है। थेरेपी, सुनने वाले को अपनी बात समझाने या परिस्थिति के मुताबिक भाषा को अपनाने (जैसे कि बड़ों का शिशुओं से संवाद करने का अलग ढंग या फिर शोरगुल के बीच जोर से बोलना) जैसे गुणों में निपुण करती है। अंततः इसका मकसद बातचीत अथवा अपनी बात बताने के दौरान संवाद के ‘अनकहे’ नियम की समझ पा लेना और पालन करना भी है, जैसे कि, बातचीत में बारी-बारी से बोलना, बोलने वाले की तरफ देखना, बोलने वाले से सही दूरी पर खड़ा होना, चेहरे की यथेष्ठ भंगिमा और हाव-भाव का इस्तेमाल करना। ये नियम अलग-अलग परिवारों और संस्कृति में अलग-अलग हो सकते हैं। आमतौर पर, एक बच्चा ये सब अपने आसपास के लोगों को देखकर ही सीख सकता है। ये बातें बच्चे को अलग से खास तौर पर सिखानी नहीं पड़ती।

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संवाद या संबंध समझ पाने में अक्षम बच्चों के आरंभिक सालों में स्पीच एंड लेंग्वेज थेरेपी (संवाद एवं भाषा उपचार) और ऑक्युपेशनल थेरेपी से काफी फर्क लाया जा सकता है। यह उपचार उसके समाज से संवाद की कला सीखने में मददगार हो सकते हैं। ये है... रिसेप्टिव लैंग्वेज (बात समझना), भाषा की समझ पाना। एक्सप्रेसिव लैंग्वेज (उपयोग) यानी अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों को बताने के लिए कुछ बोलकर, इशारों से या वैकल्पिक बोली से, भंगिमा से, समझाना। प्री-लैंग्वेज स्किल्स यानी वह तरीके जिनसे हम शब्दों का इस्तेमाल किए बिना बात करते हैं और इसमें इशारे, चेहरे के हाव-भाव, नकल, उपरोक्त कई तरीके मिलाकर ध्यान खींचना और आंखों ही आंखों में कुछ कहने जैसी चीज़ें शामिल हैं। एग्जीक्यूटिव फंक्शनिंग यानी उच्चर स्तर की तार्किकता और सोचने का कौशल। सेल्फ रेगुलेशन यानी किसी परिस्थिति के हिसाब से अपने भावनाएं, व्यव्हार और ध्यान खींचने को सामाजिक स्तर पर स्वीकार्य तौर-तरीकों के अनुसार बनाए रखना या बदलने की काबिलियत।

दूसरे लोगों के साथ सामाजिक रिश्ते बनाने के लिए सामाजिक संवाद (व्यव्हारिक) एक महत्त्वपूर्ण कौशल है। यह शिक्षा के तौर पर भी ज़रूरी है, क्योंकि कई पाठ्यक्रम आधारित गतिविधि समूह में काम करने और साथियों के बीच संवाद इस कौशल पर निर्भर हैं। एक मिलाजुला तरीका, जिसमें उपचार के रूप में शुरुआती प्रशिक्षण और बाद में स्कूल के माहौल से मिलने वाला सहयोग शामिल है, इन बच्चों में कमी को घटाने में मदद कर सकता है।

- लेखिका हियरिंग एंड स्पीच क्लिनिक की संचालिका हैं।

पूरा इंटरव्यू देखें

हियरिंग एंड स्पीच क्लिनिक की संचालिका डॉ. ऋतु चौधरी से मुख्य उप संपादक कविता संघाइक की बातचीत का पूरा वीडियो देखने के लिए यहां दिए गए 'क्यूआर कोड' को स्कैन करें या ब्राउजर में www.youtube.com/@dainiktribunechd ओपन करें। दैनिक ट्रिब्यून के ‘एक्स’ हैंडल @DainikTribune एवं फेसबुक पेज www.facebook.com/dainiktribunechd पर भी आप इस विशेष इंटरव्यू को सुन सकते हैं।

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