सौवें वर्ष में नये अवतार की तैयारी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने प्रति कुछ पक्षों द्वारा गढ़ी जा रही संकीर्णता, कट्टरपंथ और सांप्रदायिकता की धारणा को तोड़ने का संकल्प लेकर सार्वभौमिकता, विविधता, समानता और विश्वबंधुत्व के रास्ते पर चलकर अपने संगठन को पुनर्परिभाषित करने जा रहा है। संघ ने विदेशियों सहित भारत के तमाम गैर संघी जनसमुदायों को अपनी शाखाओं में पधारने और इसके कार्यकलाप को निकट से देखने-परखने का खुला निमंत्रण दिया है।
बुधवार को यहां विज्ञान भवन में आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत के उद्बोधन से यही निष्कर्ष निकलता प्रतीत होता है कि संघ स्वयं को वर्तमान दौर के अनुरूप ढालने के लिए एक नये रूप में अवतरित होने की तैयारी में है। डॉ. भागवत ‘100 वर्ष की संघ-यात्रा : नये क्षितिज’ विषय पर अपने त्रिदिवसीय उद्बोधन कार्यक्रम के दूसरे दिन अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। ऐसा प्रतीत हुआ कि समाज, देश और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के दृष्टिगत वह संघ को संकीर्णता की कथित अवधारणा से निकाल देने को आतुर हैं। अपने आख्यान के समापन में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनके इन विचारों पर संघ के भीतर चर्चाएं चल रही हैं और प्रतिनिधि सभा में भी उनकी कही इन बातों पर मंथन और चिंतन होगा। लगभग सवा घंटे के अपने वक्तव्य का समापन उन्होंने इन शब्दों में किया, ‘हम रहें, न रहें भारत रहना चाहिए क्योंकि भारत दुनिया के लिए जरूरी है।’
परिवार, समाज और सियासत की बात करते हुए भागवत ने कहा कि जड़वादी, उपभोगवादी विचारों की ओर पतन बढ़ा है। महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सात सामाजिक पापों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उपभाेगवाद को ही सत्य माना जाएगा तो विकास अमर्यादित होगा। गौर हो कि महात्मा गांधी ने बिना काम के धन, बिना विवेक के सुख, बिना चरित्र के ज्ञान, बिना नैतिकता के वाणिज्य, बिना मानवता के विज्ञान, बिना त्याग के धर्म, और बिना सिद्धांत के राजनीति के बारे में कहा था कि ये समाज में पतन लाते हैं।
भारत की परंपरा मध्यम मार्ग की, यही आज की आवश्यकता
डॉ. भागवत ने कहा कि समाज और जीवन में संतुलन ही धर्म है, जो किसी भी अतिवाद से बचाता है। भारत की परंपरा इसे मध्यम मार्ग कहती है और यही आज की दुनिया की सबसे बड़ी आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि दुनिया के समक्ष उदाहरण बनने के लिए समाज परिवर्तन की शुरुआत घर से करनी होगी। इसके लिए संघ ने पंच परिवर्तन बताए हैं- कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, स्व-बोध (स्वदेशी) और नागरिक कर्तव्यों का पालन।
धर्म का मतलब समर्पण और त्याग
सरसंघचालक भागवत ने कहा, ‘महज पूजा-पाठ ही धर्म नहीं है। समाज और प्रकृति में संतुलन बनाना भी धर्म है।’ कबूतर और बाज का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि समर्पण और त्याग ही धर्म है। उन्होंने कहा, ‘धर्म हमें संतुलन सिखाता है- हमें भी जीना है, समाज को भी जीना है और प्रकृति को भी जीना है।’ धर्म ही मध्यम मार्ग है जो अतिवाद से बचाता है। धर्म का अर्थ है मर्यादा और संतुलन के साथ जीना। इसी दृष्टिकोण से ही विश्व शांति स्थापित हो सकती है। धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा, ‘धर्म वह है जहां विविधता को स्वीकार किया जाता है और सभी के अस्तित्व को सम्मान दिया जाता है।’
ट्रंप टैरिफ की ओर इशारा, बोले- दबाव में न हो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
संघ प्रमुख भागवत ने ट्रंप टैरिफ की ओर इशारा करते हुए कहा कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार स्वेच्छा से होना चाहिए, दबाव में नहीं। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता सभी समस्याओं का समाधान है। उन्होंने कहा कि स्वदेशी का मतलब यह नहीं है कि उन वस्तुओं का आयात न किया जाए, जो देश में पहले से मौजूद हैं या जिनका विनिर्माण आसानी से किया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘जो कुछ भी आपके देश में बनता है, उसे बाहर से आयात करने की कोई जरूरत नहीं है।’ उन्होंने आत्मनिर्भरता पर विशेष बल दिया।
उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर भारत के लिए स्वदेशी को प्राथमिकता दें तथा भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केवल स्वेच्छा से होना चाहिए, किसी दबाव में नहीं। सृष्टि के प्रारंभ से भारत के अस्तित्व की बात करते हुए भागवत ने कहा कि आज दुनिया कट्टरता, कलह और अशांति की ओर जा रही है। उन्होंने कहा कि आज दुनिया में समन्वय का अभाव है और दुनिया को अपना नजरिया बदलना होगा। दुनिया को धर्म का मार्ग अपनाना होगा। उन्होंने कहा कि हमें अपना आउटलुक बदलना होगा। भारतीय समाज की विविधता को इस देश का संस्कार बताते हुए उन्होंने कहा कि भारत में संबंधों की परंपरा है। संबंधों में गर्माहट से ही वैश्विक समस्याओं का निदान होगा। उन्होंने कहा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें सिखाया कि जीवन अपने लिए नहीं है। यही कारण है कि भारत को दुनिया में बड़े भाई की तरह मार्ग दिखाने की भूमिका निभानी है। इसी से विश्व कल्याण का विचार जन्म लेता है। वैश्विक संदर्भ में उन्होंने कहा कि शांति, पर्यावरण और आर्थिक असमानता पर चर्चा तो हो रही है, उपाय भी सुझाए जा रहे हैं, लेकिन समाधान दूर दिखाई देता है। इसके लिए संतुलित बुद्धि और धर्म दृष्टि का विकास करना होगा। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज को अपने आचरण से दुनिया में उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
भारत ने नुकसान में भी संयम बरताभारत के आचरण की चर्चा करते हुए सरसंघचालक ने कहा कि हमने हमेशा अपने नुकसान की अनदेखी करते हुए संयम रखा है। जिन लोगों ने हमें नुकसान पहुंचाया, उन्हें भी संकट में मदद दी है। उन्होंने कहा कि आज समाज में संघ की साख पर विश्वास है। उन्होंने कहा कि समाज में अच्छा काम करने वाली सज्जन शक्ति आपस में जुड़े। इससे समाज स्वयं संघ की ही तरह चरित्र निर्माण और देशभक्ति के कार्य को करेगा। मोहन भागवत ने कहा कि दूरियों को मिटाने की जरूरत है।
क्या बोले पड़ोसी देशों पर
पड़ोसी देशों से रिश्तों पर भागवत ने कहा कि भारत को बड़े भाई की तरह भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा, ‘नदियां, पहाड़ और लोग वही हैं, केवल नक्शे पर लकीरें खींची गई हैं। हमारे पंथ और संप्रदाय अलग हो सकते हैं, पर संस्कारों पर मतभेद नहीं है।’ उन्होंने कहा कि पहले सब भारत का ही हिस्सा था। उन्होंने कहा, ‘हमारे संस्कारों में शांति होनी चाहिए।’ विवेकानंद एवं रामकृष्ण परमहंस का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हमें आपसी दूरियों को मिटाना होगा।
पंच परिवर्तन- शुरुआत हो घर से
उन्होंने कहा कि दुनिया में परिवर्तन लाने से पहले हमें अपने घर से समाज परिवर्तन की शुरुआत करनी होगी। इसके लिए संघ ने पंच परिवर्तन बताये हैं। यह हैं कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता, आत्मनिर्भरता एवं संविधान व कानून का पालन। उन्होंने कहा कि विरोध के तरीके और भी हो सकते हैं, लेकिन कानून का उल्लंघन कदापि नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि कोई उकसावे की स्थिति आती है तो उपद्रवी तत्व लाभ उठाकर हमें तोड़ने का प्रयास करते हैं। हमें कभी उकसावे में आकर अवैध आचरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने उदाहरण दिया कि पर्व-त्योहार पर पारंपरिक वेशभूषा पहनें, अपनी भाषा में बात करें। घर में बनी चीजों का प्रयोग करें। कभी-कभार बाहर से चीजें खरीदनी पड़ जाएं, लेकिन स्थानीयता को महत्व दें।
बतायी संघ की कार्यप्रणाली
अपने संबोधन में मोहन भागवत ने कहा कि संघ का कार्य शुद्ध सात्िवक प्रेम और समाजनिष्ठा पर आधारित है। उन्होंने कहा, ‘संघ का स्वयंसेवक कोई व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा नहीं रखता। यहां लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है। स्वयंसेवक समाज-कार्य में आनंद का अनुभव करते हुए कार्य करते हैं।’ उन्होंने स्पष्ट किया कि जीवन की सार्थकता और मुक्ति की अनुभूति इसी सेवा से होती है। सज्जनों से मैत्री करना, दुष्टों की उपेक्षा करना, कोई अच्छा करता है तो आनंद प्रकट करना, दुर्जनों पर भी करुणा करना- यही संघ का जीवन मूल्य है।