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मौन में मुखर भक्ति

एकदा
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जब हनुमान जी की दृष्टि एक घायल मोर पर पड़ी, जो राम नाम का जाप नहीं कर रहा था, तो उनका मन व्याकुल हो गया। जहां सभी जीव राम का गुणगान कर रहे थे, वहीं यह मोर नि:शब्द पड़ा था। हनुमान जी ने पूछा, ‘हे मोर, तुम राम नाम क्यों नहीं जपते?’ मोर मौन रहा। हनुमान जी सोच में पड़ गए—क्या यह प्रभु से विमुख है, या इसकी पीड़ा ही इसे मौन बना रही है? इस संशय को लेकर वे श्रीराम और सीता जी के पास पहुंचे और सारी बात विस्तार से बताई। हनुमान की जिज्ञासा सुनकर श्रीराम मुस्कुरा उठे और बोले, “हनुमान, यदि तुम जानना चाहते हो कि भक्ति का असली स्वरूप क्या है, तो इस मोर की सेवा करो। न राम नाम सिखाओ, न कोई प्रवचन दो, बस इसे ठीक करो।” हनुमान जी ने विनम्रता से आज्ञा स्वीकार की। वे दिन-रात उस मोर की सेवा में लगे रहे। अपने उपचार से उन्होंने उसके घाव तो भर दिए, पर मोर अब भी मौन था। एक दिन, जब हनुमान उसकी सेवा में लीन थे, उन्होंने देखा कि मोर की आंखों से अश्रु बह रहे हैं और उसकी दृष्टि में श्रीराम की छवि स्पष्ट प्रतिबिंबित हो रही है। उस क्षण हनुमान को अनुभूति हुई — ‘यह तो राम को उसी तरह देख रहा है जैसे मैं।’ उनकी आंखें भर आईं। वे श्रीराम के पास लौटे और भावुक होकर बोले, ‘प्रभु, अब मैं समझ गया। जो बोल नहीं सकता, वह भी भक्ति के उच्चतम शिखर पर हो सकता है।’ श्रीराम मुस्कुराए और बोले, ‘हनुमान, भक्ति शब्दों से नहीं, सेवा, करुणा और प्रेम से मापी जाती है।’ सीता जी ने भी कहा, ‘वाणी शरीर की होती है, पर भक्ति आत्मा की — और आत्मा तो मौन में ही सबसे मुखर होती है।’

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