लोभ का कांटा
एक बार अवधूत दत्तात्रेय नदी के किनारे टहल रहे थे। उन्होंने देखा कि एक मछुआरा नदी के तट पर बैठा था और वह लोहे के बने एक छोटे कांटे पर मांस का टुकड़ा लगा रहा था। दत्तात्रेय ने उससे पूछा, ‘भैया, तुम यह मांस कांटे पर क्यों लगा रहे हो?’ मछुआरे ने उत्तर दिया, ‘मैं इस मांस के टुकड़े को पानी में डाल दूंगा। मांस के लालच में मछली उस कांटे पर झपटेगी, और कांटे से उसका मुंह फंस जाएगा। तब मैं उसे पकड़ लूंगा।’ दत्तात्रेय ने पुनः पूछा, ‘यदि मछली मांस निगलकर कांटा उगल भी दे, तो वह कैसे फंसेगी?’ मछुआरे ने हंसते हुए कहा, ‘बाबा, क्या आप इतना भी नहीं जानते कि विषयों को निगलना तो आसान है, पर उन्हें उगलना अत्यंत कठिन।’ यह सुनते ही दत्तात्रेय जी को शास्त्र का वचन याद आ गया कि जब प्राणी लोभ, लालच, मोह और ममता के जाल में फंस जाता है, तो वह दुखों के सागर में डूब जाता है। वह भले ही सांसारिक सुखों को दुख का कारण जान ले, फिर भी उनसे मुक्ति का मार्ग खोज नहीं पाता।