परंपराओं से परे आत्मा की यात्रा
डॉ. मोनिका राज
धर्म मानव सभ्यता का एक अनिवार्य अंग रहा है, जिसने समाज को नैतिक मूल्यों, संस्कारों और जीवन के उच्चतम आदर्शों की ओर प्रेरित किया है। किंतु समय के साथ धर्म की परिभाषा और उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न संदर्भों में बदलता रहा है। आज जब हम धर्म को देखते हैं, तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या धर्म मात्र रीति-रिवाजों और परंपराओं का नाम है या यह आत्मिक शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का साधन भी है?
धर्म का वास्तविक स्वरूप
धर्म संस्कृत के ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘धारण करना’ या ‘संरक्षण करना’। धर्म का उद्देश्य न केवल सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना है, बल्कि आत्मा को पवित्र करना और मानव को अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराना भी है। महात्मा गांधी, विवेकानंद और अन्य महान संतों ने धर्म को आत्मिक विकास और मानवता की सेवा से जोड़ा। उन्होंने कहा कि धर्म केवल बाहरी कर्मकांडों का पालन करना नहीं, बल्कि भीतर की शुद्धि और आत्मोन्नति की प्रक्रिया है।
धर्म और रीति-रिवाज
सदियों से धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू उसके रीति-रिवाज और परंपराएं रही हैं। हिंदू धर्म में पूजा-पाठ, यज्ञ, व्रत-उपवास, तीर्थयात्राएँ, मंत्रोच्चार, आरती और अन्य अनुष्ठान धार्मिक परंपराओं का हिस्सा हैं। इस्लाम में नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज धार्मिक कर्तव्यों का रूप लिए हुए हैं। ईसाई धर्म में चर्च जाना, प्रार्थना करना और बाइबिल पढ़ना धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है।
लेकिन इन रीति-रिवाजों का उद्देश्य क्या है? क्या ये मात्र कर्मकांड हैं, या इनके पीछे कोई गूढ़ आध्यात्मिक संदेश छिपा है? वास्तव में, ये परंपराएँ आत्मिक शुद्धि की ओर पहला कदम हैं। उपवास केवल खान-पान से संयम नहीं, बल्कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखने की साधना है। पूजा केवल मूर्ति के आगे सिर झुकाना नहीं, बल्कि अपने अहंकार का विसर्जन करना है। यदि इन रीति-रिवाजों को केवल बाहरी आडंबर मानकर निभाया जाए, तो इनका वास्तविक उद्देश्य समाप्त हो जाता है।
आत्मिक शुद्धि और धर्म
सभी महान संतों और धर्मगुरुओं ने धर्म के मूल उद्देश्य को आत्मा की शुद्धि से जोड़ा है। कबीरदास ने कहा था- ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।’ इसका अर्थ यह है कि बाहरी आडंबर और धार्मिक कर्मकांड तभी सार्थक हैं जब उनके साथ आंतरिक शुद्धि का प्रयास किया जाए। आत्मिक शुद्धि का अर्थ है – अहंकार, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या और मोह जैसे दुर्गुणों से मुक्त होना और प्रेम, करुणा, सेवा, सत्य और परोपकार के मार्ग पर चलना। भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—अपने धर्म का पालन करना अन्य धर्म के सर्वोत्तम आचरण से भी श्रेष्ठ है। लेकिन यहां धर्म का तात्पर्य केवल कर्मकांडों से नहीं, बल्कि आत्मा की उन्नति से है।
सामाजिक और व्यक्तिगत प्रभाव
यदि धर्म केवल रीति-रिवाजों तक सीमित रह जाए, तो वह एक सामाजिक परंपरा बनकर रह जाता है, जिसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन जब धर्म आत्मिक शुद्धि का साधन बनता है, तब वह व्यक्ति और समाज दोनों को उन्नति की ओर ले जाता है। एक धार्मिक व्यक्ति केवल मंदिर, मस्जिद या चर्च जाकर ईश्वर की पूजा नहीं करता, बल्कि अपने व्यवहार में नैतिकता, ईमानदारी और सहृदयता लाता है।
विवेकानंद ने कहा था- ‘धर्म वह नहीं जो केवल किताबों में लिखा हो, बल्कि वह है जो जीवन में उतारा जाए।’ यदि कोई व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करता है, लेकिन उसके आचरण में करुणा, दया, सत्य और सेवा नहीं है, तो वह धर्म की आत्मा को नहीं समझा। इसके विपरीत, जो व्यक्ति किसी कर्मकांड का पालन नहीं करता, लेकिन सद्भाव, परोपकार और नैतिकता के साथ जीवन जीता है, वह सच्चे अर्थों में धार्मिक है।
धर्म और अंधविश्वास
जब धर्म आत्मिक शुद्धि के स्थान पर केवल बाहरी रीति-रिवाजों तक सीमित हो जाता है, तब उसमें अंधविश्वास जन्म लेता है।
आधुनिक प्रासंगिकता
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में भी धर्म की प्रासंगिकता बनी हुई है, बशर्ते कि उसे केवल रीति-रिवाजों तक सीमित न रखा जाए। आज लोग तनाव, अवसाद और आत्मिक असंतोष का शिकार हो रहे हैं। इस स्थिति में धर्म केवल अनुष्ठानों का नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक शांति का मार्गदर्शक बन सकता है। ध्यान, योग, सत्संग और प्रार्थना जैसे साधन आत्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि धर्म केवल रीति-रिवाजों और परंपराओं का नाम नहीं है, बल्कि आत्मिक शुद्धि और जीवन की उच्चतर अवस्था प्राप्त करने का साधन है। यदि कोई धर्म केवल बाहरी कर्मकांडों तक सीमित रह जाए, तो वह मात्र एक सामाजिक अनुष्ठान बनकर रह जाता है। लेकिन जब धर्म को आत्मिक उन्नति, नैतिकता और मानवीय मूल्यों के साथ जोड़ा जाता है, तब वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी बनता है। धर्म का सार बाहरी आडंबर में नहीं, बल्कि आंतरिक पवित्रता में निहित है। यही सच्चे धर्म की पहचान है।