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सुंदरता का भ्रम

एकदा
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राजकुमार भद्रबाहु स्वयं को सुंदर पुरुष मानता था। एक दिन वह अपने मित्र सुकेशी के साथ घूमने निकला। रास्ते में वे एक श्मशान के पास से गुजरे। वहां जलती चिता से उठती आग की लपटों को देखकर भद्रबाहु चौंक गया। उसने सुकेशी से पूछा, ‘यहां क्या हो रहा है?’ सुकेशी ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘युवराज, किसी मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार किया जा रहा है।’ यह सुनकर भद्रबाहु ने आश्चर्य से कहा, ‘ओह! तब तो वह ज़रूर बहुत कुरूप रहा होगा!’ सुकेशी बोला, ‘नहीं युवराज, वह व्यक्ति अत्यंत सुंदर था।’ भद्रबाहु और चकित होकर बोला, ‘तो फिर उसे जलाया क्यों जा रहा है?’ सुकेशी ने गंभीरता से कहा, ‘मृत देह को एक दिन जलना ही होता है, चाहे वह कितना ही सुंदर क्यों न हो। मृत्यु के बाद शरीर नष्ट होने लगता है, इसलिए उसका अंतिम संस्कार आवश्यक है।’ यह सुनकर भद्रबाहु का सारा अहंकार चूर-चूर हो गया। उसके मन में वैराग्य-भाव जाग गया। अंततः उसे एक महात्मा के पास ले जाया गया। जब महात्मा ने उसकी स्थिति जानी, तो उन्होंने समझाया, ‘कुमार, तुम एक बड़ी भूल कर रहे हो। सुंदरता शरीर में नहीं, मन में होती है। हमारे विचार, भाव और कर्म यदि सुंदर हैं, तो वही वास्तविक सुंदरता है। शरीर तो मात्र एक साधन है। उसे इतना महत्व न दो। अपने मन, वचन और कर्म को सुंदर बनाने का प्रयास करो— यही सच्चा जीवन है, और यही तुम्हें सार्थकता देगा।’

प्रस्तुति : मुग्धा पांडे

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