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भीतर की दिव्यता

एकदा
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स्वामी विवेकानंद एक बार शिष्यों से कह रहे थे कि जीवन का सार आत्मसाक्षात्कार में निहित है। केवल बाहरी उपलब्धियां या भौतिक सुख आत्मा को पूर्ण नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि जैसे अग्नि अपने भीतर निहित ताप और प्रकाश को दबा नहीं सकती, उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वभाव के अनुसार ज्ञान और आनंद को प्रकट करना चाहती है। परन्तु यह प्रकट होना स्वाभाविक नहीं होता, इसके लिए मनुष्य को अपने भीतर गहराई से झांकना पड़ता है। स्वामीजी ने कहा कि हम अक्सर बाहरी दुनिया के आकर्षणों में इतने उलझ जाते हैं कि अपनी असली शक्ति को पहचानना भूल जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि साधना और समर्पण के बिना आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं। जब व्यक्ति मन, वासनाओं और अहंकार के परदे से मुक्त हो जाता है, तब उसके भीतर की दिव्यता स्वतः जाग्रत हो जाती है। इसी जागृति को जीवन का सार कहा गया है। उन्होंने शिष्यों को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि कठिनाइयों और असफलताओं से भयभीत न होकर, उन्हें आत्मबोध की सीढ़ी मानकर स्वीकार करो। इसी संघर्ष में हमारी छिपी हुई क्षमताएं खुलती हैं और अंततः मनुष्य वह पूर्णता प्राप्त करता है जिसके लिए वह जन्मा है।

प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार

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