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हरि-हर की मिलन भूमि में मोक्ष पाने की आकांक्षा

हरिहर नाथ मंदिर
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सोनपुर का हरिहर नाथ मंदिर, जहां गंगा और गंडक नदियों का संगम होता है, हिंदू धर्म की एक अद्वितीय धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है। यहां भगवान शिव और विष्णु का मिलन होता है, जो इस स्थान को मोक्ष प्राप्ति की भूमि बनाता है।

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बिहार में सोनपुर में, जहां पवित्र गंगा और गंडक नदियों का संगम होता है, वहीं मौर्यकाल से भी प्राचीन हरिहर नाथ मंदिर स्थित है, जिसे ‘स्कंद पुराण’ में हिंदुओं की आदिम मोक्षस्थली का दर्जा प्राप्त है। हरिहर नाथ मंदिर केवल बिहार या भारत का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिंदू धर्म का प्रतीक है। हरिहर मंदिर की आध्यात्मिक पहचान यह है कि यहां भगवान हरि यानी विष्णु और हर यानी शिव एक ही सतह के दो आयाम बनकर सामने आते हैं। दूसरे शब्दों में, यह स्थान—हरिहर नाथ मंदिर—हरि और हर का अद्वैत समन्वय है।

मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होकर अगले एक माह तक जो व्यक्ति यहां पवित्र स्नान करके हरिहर नाथ के दर्शन करता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इसलिए इस मंदिर के परिक्षेत्र को ‘हरिहर क्षेत्र’ भी कहा जाता है। यह पूरी दुनिया में अकेला ऐसा स्थल है, जहां भगवान शिव और भगवान विष्णु एकाकार रूप में पूजे जाते हैं। यह तीर्थ स्थान हिंदुओं की सबसे प्राचीन मोक्ष भूमियों में से एक है, जहां धर्म, दर्शन और लोकसंस्कृति—तीनों मिलकर एक अनूठा समन्वय बनाते हैं।

अन्य तीर्थों से अलग

सदियों से यह हिंदू धर्म की एक ऐसी एकात्म परंपरा का प्रतीक है, जहां देवताओं में भेद नहीं किया जाता। यहां एकत्व भाव ही सर्वोच्च है। यही बात इसे दुनियाभर के पुण्य तीर्थों से अलग और विशिष्ट बनाती है, क्योंकि यहां भक्त विष्णु की शरण में भी आता है और शिव की कृपा का भी इच्छुक होता है। इस प्रकार वह उस परम सत्य की अनुभूति करता है, जो दोनों में समान है।

इस पुण्य तीर्थ की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता बहुत अधिक है। इस स्थल को लेकर एक पुराण कथा भी प्रचलित है, जिसके अनुसार एक गज (हाथी) और ग्राह (मगरमच्छ) के बीच गंडक नदी में भयंकर युद्ध हुआ था। जब हाथी को लगा कि वह मगरमच्छ से नहीं जीत सकता, तो उसने भगवान विष्णु का स्मरण किया। भगवान विष्णु उसकी रक्षा के लिए स्वयं प्रकट हुए और ग्राह का वध किया। कहते हैं, उसी समय इस पवित्र स्थान पर भगवान शिव भी प्रकट हुए और उन्होंने भगवान विष्णु को दर्शन दिए। तभी से यह स्थल हर और हरि— यानी भगवान विष्णु और भगवान शिव—का स्थल कहलाता है और इसे हिंदुओं के धार्मिक आख्यानों में सबसे प्राचीन मोक्षस्थली होने का गौरव प्राप्त है।

धार्मिक तथा सांस्कृतिक विरासत

गंगा और गंडक के इस संगम पर हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होकर अगले एक महीने तक प्रसिद्ध सोनपुर मेला लगता है, जो पशुओं के व्यापार के लिए एशिया का सबसे बड़ा मेला है। इस मेले की अपनी अलग महत्ता है, परंतु इस अवसर पर इस स्थान की धार्मिक महत्ता और भी अधिक होती है। कार्तिक पूर्णिमा से अगले एक महीने तक देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से धार्मिक श्रद्धा रखने वाले हिंदू यहां आकर हरिहर नाथ मंदिर के दर्शन करते हैं, क्योंकि उनकी आस्था है कि इस अवधि में यहां दर्शन करने से मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार हरिहर नाथ मंदिर परिक्षेत्र हिंदुओं का एक जीवंत धार्मिक और आध्यात्मिक पुण्य क्षेत्र है।

ऐतिहासिक महत्ता

इतिहासकारों के अनुसार हरिहर नाथ मंदिर की मौजूदगी मौर्यकाल से भी प्राचीन है। माना जाता है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरु आचार्य चाणक्य ने भी यहां हरिहर नाथ के दर्शन किए थे। सम्राट अशोक के शासनकाल में जब सम्पूर्ण भारत बौद्ध धर्म की ओर अग्रसर हुआ, तब भी इस स्थल ने हिंदू पुण्य तीर्थ के रूप में अपनी महत्ता बनाए रखी। उस समय भी देश-विदेश के कोने-कोने से लाखों हिंदू मोक्ष की आकांक्षा लेकर यहां भगवान हरिहर नाथ के दर्शन के लिए आते थे।

माना जाता है कि गुप्तकाल में इस मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ और आज यहां जो हरि-हर नाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित है, वह उसी काल की है। वर्तमान मंदिर की संरचना अपेक्षाकृत नई है। मान्यता के अनुसार, इसका 18वीं शताब्दी में स्थानीय राजा रामेश्वर सिंह ने जीर्णोद्धार कराया था। इस मंदिर की स्थापत्य शैली उत्तर भारतीय नागर शैली की है। ऊंचा शिखर, गर्भगृह में संयुक्त हरिहर मूर्ति और चारों दिशाओं में बने देवालय— इस स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएं हैं।

कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहां जो महोत्सव शुरू होता है, वह एक महीने तक जारी रहता है। इस अवधि में देश-विदेश के लाखों धर्मानुरागी हिंदू यहां पहुंचकर गंगा और गंडक के संगम पर पवित्र स्नान करते हैं और हरिहर नाथ के दर्शन करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से पापों का क्षय होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी दिन से सोनपुर मेला भी प्रारंभ होता है, जो हाथी-घोड़ों के व्यापार के लिए विश्वविख्यात है।

प्राचीनकाल से इस मेले की अत्यधिक मान्यता रही है। आज भले ही लोगों के जीवन में पशुओं का वही महत्व न रह गया हो, लेकिन ग्रामीण आत्मा और अर्थव्यवस्था दोनों ही पशुओं से गहराई से जुड़ी हैं। इसलिए अगहन (मार्गशीर्ष) महीने से शुरू होकर अगले कई महीनों तक यहां धार्मिक और सांस्कृतिक पर्यटकों की भारी भीड़ रहती है, जिनमें अधिकांश लोग धार्मिक श्रद्धा और आस्था से प्रेरित होते हैं। इ.रि.सें.

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