भगवान जगन्नाथ की महिमा से आलोकित नगरी
रांची का जगन्नाथपुर मंदिर भगवान जगन्नाथ को समर्पित एक ऐतिहासिक और भव्य स्थल है। यह मंदिर ओडिशा के पुरी मंदिर की तरह दिखता है और यहां हर साल रथयात्रा का आयोजन धूमधाम से होता है। मंदिर की स्थापना से जुड़ी एक दिलचस्प कथा है, जिसमें भगवान ने एक भूखे सेवक की मदद की थी। इस मंदिर में आदिवासी समुदायों का महत्वपूर्ण योगदान है, जो विभिन्न धार्मिक कार्यों में भाग लेते हैं।
डॉ. श्रीगोपाल नारसन
झारखंड की राजधानी रांची में भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर का स्वरूप ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के समान है। जब रांची के इस मंदिर में दर्शन करते हैं तो अहसास होता है मानो ओडिशा के पुरी में महाप्रभु के दर्शन कर रहे हों। बता दें कि यह मंदिर रांची के धुर्वा में स्थित है, जो एक बहुत पुराना मंदिर है। इस जगन्नाथ मंदिर में हर साल रथयात्रा का आयोजन होता है, और ओडिशा की रथयात्रा की भांति यहां की रथयात्रा भी अत्यंत आनंदमयी होती है। उल्लेखनीय है इस मंदिर का निर्माण सन् 1691 में हुआ था, जब बड़कागढ़ क्षेत्र पर नागवंशी राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव का शासन था।
भक्ति से जुड़ी लोककथा
एक दिन राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव ओडिशा के पुरी शहर गए और अपने एक सेवक को भी साथ ले गए। महाप्रभु जगन्नाथ की कथा सुनकर वह सेवक भगवान का भक्त बन गया और महाप्रभु का गुणगान करने लगा। वह सोते-जागते केवल महाप्रभु का नाम ही लिया करता था। उसे महसूस होने लगा कि भगवान से उसका सीधा साक्षात्कार हो गया है।
उस सेवक से जुड़ी एक लोककथा है कि एक रात जब राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव रात्रि विश्राम कर रहे थे और उनके सेवक भी सो रहे थे, तब नौकर को बहुत जोर की भूख लगने लगी। वह बहुत परेशान हो गया। तब उसने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की, ‘हे भगवान, मेरी भूख को दूर कीजिए, मुझे कुछ आहार प्रदान कीजिए।’ उसकी प्रार्थना के बाद भगवान जगन्नाथ रूप बदलकर उस नौकर के पास पहुंचे और उससे बात की। नौकर ने अपनी भूख की व्यथा बताई। भगवान जगन्नाथ ने अपनी भोगवाली थाली में भोजन लाकर उसे दिया और नौकर का मन तृप्त हो गया। वह शांति और आनंद से भर उठा। नौकर ने इस घटना के लिए भगवान का धन्यवाद किया।
सुबह होने पर, नौकर ने यह घटना राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव को सुनाई। राजा यह सुनकर हैरान रह गए और बहुत प्रभावित हुए। राजा को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने आदेश दिया कि ‘राजन, जब आप अपने राज्य लौटें, तो मेरे विग्रह की स्थापना करें और उसी प्रकार पूजा-अर्चना करें जैसे पुरी में होती है।’
राजा ने संकल्प लिया और पुरी से लौटने के बाद अपने राज्य में भगवान जगन्नाथ का मंदिर बनाने का आदेश दिया। राजा ने अपने मंत्रियों को निर्देश दिया कि भगवान जगन्नाथ का भव्य मंदिर पुरी के मंदिर की तरह बनाया जाए। कुछ वर्षों में यह मंदिर तैयार हो गया। उस समय यह इलाका जंगलों से घिरा हुआ था।
समुदायों का योगदान
राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव ने यह भी तय किया कि भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर में घंटी बजाने और तेल-भोग की जिम्मेदारी आदिवासी उरांव परिवार की होगी। आदिवासी मुंडा परिवार के लोग यहां झंडा फहराएंगे, पगड़ी देंगे और वार्षिक पूजा करेंगे। वहीं रजवार और यादव जाति के लोग भगवान जगन्नाथ को मुख्य मंदिर से गर्भगृह तक ले जाएंगे। बढ़ई परिवार के लोग मंदिर के रंग-रोगन का कार्य करेंगे। लोहार समुदाय के लोग भगवान के रथ की मरम्मत करेंगे, जबकि कुम्हार समुदाय के लोग मंदिर के लिए मिट्टी के बर्तन बनाएंगे। आज भी यह परंपरा उसी प्रकार निभाई जा रही है।
श्रद्धा स्थल पर प्राकृतिक रहस्य
रांची के इस 331 साल पुराने मंदिर में एक चमत्कारी घटना भी देखने को मिलती है, जहां मंदिर का फर्श इतना गर्म हो जाता है कि घी तक पिघलने लगता है। इस बारे में जानकारी मिलने पर विभागीय अधिकारियों ने मंदिर परिसर में जांच शुरू की। खान विभाग के डायरेक्टर ने बताया कि जमीन के अंदर रेडियोएक्टिव मैटेरियल होने के कारण वहां रेडिएशन होता है, जिससे विशेष स्थान पर गर्मी उत्पन्न होती है।