योगेश कुमार गोयल
धर्मग्रंथों में भगवान शिव को ‘कालों का काल’ और ‘देवों का देव’ अर्थात् ‘महादेव’ कहा गया है। एक होते हुए भी शिव के नटराज, पशुपति, हरिहर, त्रिमूर्ति, मृत्युंजय, अर्द्धनारीश्वर, महाकाल, भोलेनाथ, विश्वनाथ, ओंकार, शिवलिंग, बटुक, क्षेत्रपाल, शरभ इत्यादि अनेक रूप हैं। सर्वत्र पूजनीय शिव को समस्त देवों में अग्रणी और पूजनीय इसलिए भी माना गया है क्योंकि वे अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं। दूध या जल की धारा, बेलपत्र व भांग की पत्तियों की भेंट से ही अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। हमारे देश में शायद ही ऐसा कोई गांव मिले, जहां भगवान शिव का कोई मंदिर अथवा शिवलिंग स्थापित न हो। यदि कहीं शिव मंदिर न भी हो तो वहां किसी वृक्ष के नीचे अथवा किसी चबूतरे पर शिवलिंग तो अवश्य स्थापित मिल जाएगा।
शिवरात्रि को भगवान शिव का सबसे पवित्र दिन माना गया है, जो सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत भी है। हालांकि, बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उमड़ता है कि शिव का यह पर्व रात्रि के रूप में क्यों मनाया जाता है? इस संबंध में मान्यता है कि रात्रि को पापाचार, अज्ञानता और तमोगुण का प्रतीक माना गया है और कालिमा रूपी इन बुराइयों का नाश करने के लिए हर माह चराचर जगत में एक दिव्य ज्योति का अवतरण होता है, यही रात्रि शिवरात्रि है। शिव और रात्रि का शाब्दिक अर्थ एक धार्मिक पुस्तक में स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘जिनमें सारा जगत शयन करता है, जो विकार रहित हैं, वह शिव हैं अथवा जो अमंगल का ह्रास करते हैं, वे ही सुखमय, मंगलमय शिव हैं। जो सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही करुणासागर भगवान शिव हैं। जो नित्य, सत्य, जगत आधार, विकार रहित, साक्षीस्वरूप हैं, वे ही शिव हैं। महासमुद्र रूपी शिव ही एक अखंड परम तत्व हैं, इन्हीं की अनेक विभूतियां अनेक नामों से पूजी जाती हैं। यही सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, यही व्यक्त-अव्यक्त रूप से ‘सगुण ईश्वर’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहे जाते हैं। यही परमात्मा, जगत आत्मा, शंकर, शिव, रुद्र आदि कई नामों से संबोधित किए जाते हैं।’
शिव के मस्तक पर अर्द्धचंद्र शोभायमान है, जिसके संबंध में कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय समुद्र से विष और अमृत के कलश उत्पन्न हुए थे। इस विष का प्रभाव इतना तीव्र था कि समस्त सृष्टि का विनाश हो सकता था, ऐसे में भगवान शिव ने इस विष का पान कर सृष्टि को नया जीवनदान दिया। विषपान करने के कारण शिव का कंठ नीला पड़ गया, जिससे वे ‘नीलकंठ’ कहलाये। विष के भीषण ताप के निवारण के लिए भगवान शिव ने चन्द्रमा की एक कला को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। इसी कारण शिव ‘चन्द्रशेखर’ भी कहलाए।