श्रुति : आत्मा से सुनना
वह ध्वनि ही शायद श्रुति थी—वह सुनना, जो कानों से नहीं, आत्मा से होता है।
वह आदमी देखने में साधारण था—जैसे किसी भीड़ में गुम एक अनजान चेहरा।
लेकिन उसके चारों ओर एक अनकहा-सा सन्नाटा था, जो बताता था कि वह कुछ ऐसा जानता है जो दुनिया के शोर में खो चुका है।
उसका जिक्र मुझे मेरे मित्र ने किया था। संयोग यह कि उन्हीं दिनों मैं अपने परिवार के साथ हिमाचल यात्रा पर था। मित्र, जो पर्यटन विभाग में कार्यरत थे, मुझसे शिमला में मिलने आए।
बातों के बीच उन्होंने कहा—‘एक जगह है… कोई खास नहीं, पर शायद तुम्हारे भीतर के लिए खास हो जाए।’
अगले दिन हम काली के टिब्बे की ओर जा रहे थे कि उन्होंने अचानक गाड़ी रुकवाई। एक संकरी पगडंडी हमें एक छोटे-से आश्रम तक ले गई—न कोई भव्य द्वार, न रंगीन झंडियां, बस एक खुला आंगन, मिट्टी की गंध और हवा में गूंजता मौन।
वह वहीं रहता था। उसने हमें दरियों पर बैठाया। कुछ देर बाद वह सामने आया, जैसे भीतर के किसी गहरे स्रोत से लौट कर आया हो।
पहली बात उसने मेरे मित्र से कही—‘आप आए, धन्यवाद… लेकिन मेरे पास ऐसा कुछ नहीं जो मैं आपको दे सकूं।’
मित्र मुस्कुराए—‘आपके पास सच है।’ वह धीमे से बोला— ‘पता नहीं… है या नहीं।’
इसके बाद कुछ सामान्य बातें हुईं। फिर उसने मेरी ओर देख कर कहा—‘एक सवाल… क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप किसी को सुन रहे हों, लेकिन असल में वही सुन रहे हों, जिसे आप सुनना चाहते हैं? सोच-समझकर जवाब दीजिए।’
फिर वह चुप हो गया, जैसे प्रश्न का उत्तर मेरे भीतर से ही फूटना हो।
मैंने कहा—‘हां और कभी-कभी तो मैं अपने भीतर चल रही अनकही आवाज़ें सुनने लगता हूं। तब बाहर की आवाज़ मुझ तक पहुंच ही नहीं पाती।’
वह थोड़ा झुककर बोला—‘और जो भीतर चलता है… क्या आप सचमुच उसे सुन पाते हैं?’
मैंने उत्तर दिया—‘हां मैं अपने आप को सुन सकता हूं।’
उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा—‘यही तुम्हारा अपना सच है… शुरुआत का द्वार। याद रखो—कोई भी तुम्हें सच नहीं दे सकता। सच कभी उधार में नहीं मिलता।’
उस क्षण, मुझे लगा जैसे दूर पहाड़ की चोटी पर कोई अदृश्य घंटा बजा हो—
जिसकी ध्वनि बाहर से नहीं, भीतर से उठ रही थी।
वह ध्वनि ही शायद श्रुति थी—वह सुनना, जो कानों से नहीं, आत्मा से होता है।
विदा लेते समय मैंने उसका हाथ थामा—‘आप जैसे लोग अब कम ही बचे हैं… जो सच बोलने का साहस रखते हैं।’
उसकी आंखों में प्रेम का एक अटल दीप जल रहा था—पहाड़ी सुबह के उस पहले सूरज की तरह, जो बर्फ को छूते ही सोना बन जाता है।
(संस्कृत में ‘श्रुति’ का अर्थ है—वह जिसे सुना गया है, पर केवल कानों से नहीं… आत्मा से।
यह सुनना किसी और का नहीं, बल्कि अपने भीतर के मौन का होता है— जहां शब्द भी शब्द नहीं रहते, वे अनुभव बन जाते हैं।)