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नि:स्वार्थ पूजा

एकदा
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कौरवों से जुए में अपना सब कुछ हारकर पांडव दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। ऐसे में भी पांडव अपना धर्म-कर्म नहीं भूलते थे। एक दिन, जब युधिष्ठिर पूजा करके उठे, तो द्रौपदी उनके पास आईं और कहने लगीं—‘महाराज, आप इतना भजन-पूजन करते हो, भगवान के निकट भी समझे जाते हो। आप भगवान से यह क्यों नहीं कहते कि वे हमारे संकट दूर कर दें?’ युधिष्ठिर सहजता से बोले—‘सुनो द्रौपदी, मैं परमात्मा का भजन किसी सौदे के लिए नहीं करता। बल्कि यह भजन-पूजन तो मैं मन की शांति और आत्मिक आनंद के लिए करता हूं। प्रकृति ने ये वन, पर्वत और नदियां बनाई हैं। हम इन्हें देखकर आनंदित होते हैं। ये जो कुछ भी देती हैं, वे स्वयं प्रदान करती हैं। इसी प्रकार, भगवान के भजन करके मैं स्वयं आनंदित होता हूं और उस समय उत्पन्न हुई प्रसन्नता ही मुझे परिस्थितियों से निपटने की क्षमता प्रदान करती है। यदि मैं अपने पूजा-पाठ के बदले भगवान से कुछ मांगूंगा, तो यह मेरी श्रद्धा नहीं, बल्कि भगवान से सौदेबाजी होगी।’

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