एक बार बाल गंगाधर तिलक अपने कुछ मित्रों के साथ बात कर रहे थे। उन दिनों उन्होंने वकालत पास की थी। एक मित्र बोला, ‘तिलक, वकालत तो तुमने पास कर ली है। किंतु आगे के लिए क्या सोचा है?’ मित्र की बात सुनकर बाल गंगाधर तिलक बोले, ‘मुझे ऐसे पैसे की जरूरत नहीं जो मुझे सरकार का गुलाम बना कर रखे। मैं ऐसी वकालत नहीं करना चाहता, जहां दिन में कई बार झूठ बोलना पड़े।’ एक दिन उनकी मित्रमंडली को पता चला कि बाल गंगाधर ने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया है। तीस रुपये महीना वेतन पर। यह सुनकर उनका मित्र सीधे तिलक के पास पहुंचा और बोला, ‘यह तुमने क्या किया तिलक? वकालत की डिग्री लेकर अध्यापक क्यों बने? क्या तुम शिक्षकों की आर्थिक स्थिति के बारे में नहीं जानते? दोस्त! जब तुम अंतिम सांस लोगे, तब तुम्हारे दाह-संस्कार के लिए भी घर में कुछ नहीं होगा।’ तिलक मुस्कुराते हुए बोले, ‘मैंने जो पेशा चुना है वह बहुत पवित्र है, ईमानदारी वाला है। रही अंतिम समय की बात तो मेरे दाह-संस्कार का प्रबंध नगरपालिका कर देगी।’ तिलक की बात सुनकर मित्र हैरान रह गया। प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार