योगेश कुमार गोयल
सिख धर्म का इतिहास मानवता और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की गाथाओं से भरा है। सिख गुरुओं में सबसे पहले शहीदी की महान मिसाल पेश की श्री गुरु अर्जुन देव जी ने। धर्म रक्षक और मानवता के सच्चे सेवक पंचम पातशाह के मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह सम्मान था, वे दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। गुरु अर्जुन देव को उनकी विनम्रता के लिए भी स्मरण किया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में कभी किसी को कोई दुर्वचन नहीं कहा। शांत व गंभीर स्वभाव के स्वामी गुरु अर्जुन देव जी को अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक का दर्जा प्राप्त है, जिनमें निर्मल प्रवृत्ति, सहृदयता, कर्तव्यनिष्ठा, धार्मिक एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण भावना जैसे गुण कूट-कूटकर समाये थे। ब्रह्मज्ञानी गुरु अर्जुन देव को आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, जो शहीदों के सरताज और शांतिपुंज भी माने जाते हैं। वह आध्यात्मिक चिंतक और उपदेशक के साथ ही समाज सुधारक भी थे, जो सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे। अपने 43 वर्षों के जीवनकाल में उन्होंने धर्म के नाम पर किये जाने वाले आडम्बरों और अंधविश्वासों पर कड़ा प्रहार किया।
सुखमनी की सौगात
प्रतिदिन प्रातःकाल लाखों लोग शांति हासिल करने के लिए ‘सुखमनी साहिब’ का पाठ करते हैं, जो गुरु अर्जुन देव जी की अमर-बाणी है। सुखमनी अर्थात् सुखों की मणि यानी मन को सुख देने वाली बाणी, जो मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धीकरण भी करती है। यह सूत्रात्मक शैली की राग गाउडी में रची गई उत्कृष्ट रचना मानी जाती है, जिसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा, त्याग, मानसिक सुख-दुख तथा मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखों की प्राप्ति कर सकता है।
सुखमनी सुख अमृत प्रभु नामु।
भगत जना के मन बिसरामु।
गुरुओं, भक्तों की बाणी
गुरु अर्जुन देव जी ने आदि (गुरु) ग्रंथ का संकलन किया, जो मानव जाति को सबसे बड़ी देन मानी गयी है। सिख गुरुओं और अपनी बाणी के अलावा उन्होंने 15 भक्तों के शबदों को भी इसमें शामिल किया। ये 15 भक्त देश के विभिन्न हिस्सों से थे। अलग-अलग जाति, संप्रदायों से थे। इस ग्रंथ को मानवता के अद्भुत मार्गदर्शक के रूप में उन्होंने हरमंदिर साहिब में स्थापित कराया। संपूर्ण मानवता में धार्मिक सौहार्द पैदा करने के लिए श्री गुरु ग्रंथ साहिब में 36 महान संतों और गुरुओं की बाणियों का संकलन किया गया। इसमें कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें से कुल 30 रागों में 2218 शब्द श्री गुरु अर्जुन देव जी के ही हैं। अन्य शब्द महान संत कबीर, संत रविदास, संत नामदेव, संत रामानंद, बाबा फरीद, भाई मरदाना, भक्त धन्ना, भक्त पीपा, भक्त सैन, भक्त भीखन, भक्त परमानंद, बाबा सुंदर इत्यादि के हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन गुरु अर्जुन देव ने भाई गुरदास जी की सहायता से किया, जिसमें रागों के आधार पर संकलित बाणियों का इस प्रकार वर्गीकरण किया गया, जिसे मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में बेहद दुर्लभ माना जाता है। गुरु ग्रंथ साहिब के संकलन का कार्य वर्ष 1603 में शुरू हुआ और 1604 में सम्पन्न हो गया था। इसका प्रथम प्रकाश श्री हरमंदिर साहिब में 30 अगस्त 1604 को किया गया। मुख्य ग्रंथि की जिम्मेदारी बाबा बुड्ढा जी को सौंपी गई, जिन्होंने बचपन में गुरु अमरदास के साथ मिलकर अर्जुन देव का पालन-पोषण किया था। वर्ष 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के 116 शबद जोड़कर गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया।
15 अप्रैल 1563 को अमृतसर के गोइंदवाल साहिब में पिता रामदास और माता भानी जी के यहां जन्मे अर्जुन देव का बचपन गोइंदवाल साहिब में बेहद आध्यात्मिक माहौल में बीता। उनके पिता गुरु रामदास सिखों के चौथे और नाना गुरु अमरदास तीसरे गुरु थे। मात्र 11 वर्ष की आयु में गंगा जी के साथ अर्जुन देव जी का विवाह सम्पन्न हुआ। गुरु अर्जुन देव ने ध्यान लगाने की विधि अपने मामा मोहनजी से, जबकि गुरमुखी की शिक्षा अपने नाना गुरु अमरदास जी से, संस्कृत पंडित बेणी से, गणित की शिक्षा अपने मामा मोहरीजी से और देवनागरी की शिक्षा गोइंदवाल साहिब की धर्मशाला में हासिल की। 18 वर्ष की आयु में वर्ष 1581 में गुरु रामदास जी ने उन्हें अपने स्थान पर पांचवां गुरु बनाया।
तेरा कीआ मीठा लागे…
गुरु अर्जुन देव जी का सेवाभाव और श्री गुरु ग्रंथ साहिब का कार्य कुछ असामाजिक तत्वों को रास नहीं आया, इसीलिए कुछ लोगों ने इसके खिलाफ बादशाह अकबर के दरबार में शिकायत कर डाली कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ काफी गलत बातें लिखी गई हैं। जब अकबर को ग्रथ में संकलित गुरुबाणियों की महानता का आभास हुआ तो उसने 51 मोहरें भेंट कर खेद प्रकट किया। अकबर के देहांत के बाद दिल्ली का शासक बना निर्दयी और कट्टरपंथी जहांगीर, जिसे गुरु अर्जुन देव जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य फूटी आंख नहीं सुहाते थे। जहांगीर ने उन्हें सपरिवार पकड़ने का फरमान जारी कर दिया। आखिरकार लाहौर में गुरुजी को बंदी बना लिया गया और जहांगीर ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई। क्रूर शासक के फरमान पर 30 मई 1606 को गुरु अर्जुन देव को लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान लोहे के तपते तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। तपते तवे और तपती रेत से भी गुरु जी जरा भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते असहनीय कष्ट झेलते हुए भी उन्होंने यही अरदास की-
तेरा कीआ मीठा लागे।
हरि नाम पदारथ नानक मांगै।
जब उनके शीश पर आग सी तपती रेत डालने पर उनका शरीर बुरी तरह से जल गया तो उन्हें जंजीरों से बांधकर रावी नदी में फेंक दिया गया। उस स्थान पर बाद में गुरुद्वारा डेरा साहिब का निर्माण किया गया, जो पाकिस्तान में है।