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अंतःकरण की शुद्धि

एकदा
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आचार्य विनोबा भावे गुजरात के एक गांव में भूदान यात्रा पर थे। गांव के एक धनी जमींदार ने आकर उनसे कहा, ‘बाबा, मैं भी भूमि दान देना चाहता हूं। आप कहिए कितनी भूमि चाहिए?’ विनोबा मुस्कुराए और बोले, ‘दान तो हृदय से होता है, उसमें मात्रा नहीं, भावना की परीक्षा होती है।’ लेकिन जमींदार ने आग्रह किया, ‘आप मेरे लिए कोई कठिन परीक्षा रखिए, जिससे यह सिद्ध हो कि मैं सच्चे मन से दान देना चाहता हूं।’ विनोबा कुछ क्षण शांत रहे और फिर बोले, ‘ठीक है, तुम्हारे खेत के पास जो वृद्ध खेत-मजदूर रहता है, उसे अपने घर एक दिन भोजन के लिए बुलाओ और उसे आदर से अपने साथ बैठाकर खाना खिलाओ।’ जमींदार चौंका। वह मजदूर अछूत जाति से था और समाज में उसे नीची निगाह से देखा जाता था। कुछ देर वह सोचता रहा, फिर बोला, ‘बाबा, भूमि देना सरल है, लेकिन उसे अपने घर बुलाकर खाना खिलाना... वह तो मेरी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा देगा।’ विनोबा शांत स्वर में बोले, ‘दान से पहले तुम्हारा मन निर्मल होना चाहिए। भूमि का दान तभी सार्थक है जब तुम्हारा हृदय भी समानता और करुणा से भरा हो। यह सच्ची परीक्षा है।’ जमींदार की आंखों में आंसू आ गए। अगले दिन वह स्वयं उस वृद्ध को अपने घर ले गया और उसे आदरपूर्वक भोजन कराया और फिर 10 एकड़ भूमि का दान भी किया।

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