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Pauranik Kathayen : जब जीत भी बन गई बोझ... दूसरे केदार में पांडवों ने धोए थे पाप, जानिए पौराणिक कहानी

कहानी दूसरे केदार मंदिर की, भाइयों की हत्या करने के बाद इस मंदिर में पाप धोने गए थे पांडव
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चंडीगढ़, 5 जून (ट्रिन्यू)

Pauranik Kathayen : उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित श्री मद्महेश्वर मंदिर हिंदू धर्म के पंचकेदारों में से दूसरा प्रमुख मंदिर है। समुद्रतल से लगभग 3,289 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर मंडल घाटी में है।

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यह न केवल एक तीर्थस्थल है बल्कि महाभारत के बाद की एक गहन, आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक भी है। यहां पांडव अपने ही भाईयों की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव की शरण में गए थे।

ऐसे प्रकट हुए पंचकेदार

पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत के युद्ध में पांडवों ने अपने कौरव भाइयों सहित कई परिजनों और महान योद्धाओं का वध किया। युद्ध में विजय के बाद भी उन्हें संतोष नहीं मिला बल्कि उनके मन में ग्लानि और पापबोध घर कर गया। वे आत्मशांति और मोक्ष की तलाश में निकल पड़े और भगवान शिव से क्षमा मांगने का निश्चय किया।

मगर, भगवान शिव, पांडवों से क्रोधित थे और उनका सामना नहीं करना चाहते थे इसलिए वे उनसे छिपते-छिपाते केदारखंड (वर्तमान उत्तराखंड) पहुंचे। वहां भगवान शिव ने नंदी रूप में पांच स्थानों पर अपने शरीर के अंगों को प्रकट किया। कहा जाता है कि केदारनाथ में शिव की पीठ, तुङ्गनाथ में भुजाएं, रुद्रनाथ में मुख, कल्पेश्वर में जटा और मद्महेश्वर में उनका नाभि भाग (मध्य भाग) प्रकट हुआ। इन पांचों स्थलों को आज पंचकेदार के नाम से जाना जाता है।

भाइयों की हत्या करने के बाद पांडवों ने यहां धोए थे पाप

‘मद’ का अर्थ होता है- मोह या माया और ‘महेश्वर’ यानी शिव। माना जाता है कि यहां शिव ने अपने "मद" रूप, अर्थात शरीर के मध्य भाग को प्रकट किया था। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और यहां उनकी नाभि की पूजा होती है। पांडवों ने इसी स्थान पर मोह माया को त्यागकर अपने पापों का प्रायश्चित किया था। मद्महेश्वर मंदिर की संरचना उत्तर भारतीय नागर शैली में बनी है और मुख्य गर्भगृह में शिवलिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा की जाती है। यहां एक छोटा मंदिर पार्वती और अर्धनारीश्वर को समर्पित है।

प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक अनुभव

मद्महेश्वर की यात्रा एक आध्यात्मिक तीर्थ के साथ-साथ एक साहसिक ट्रैक भी है। यहां पहुंचने के लिए अंतिम सड़क से करीब 16-18 किलोमीटर की कठिन पैदल यात्रा करनी पड़ती है। यात्रा के दौरान देवदार, बुरांश और ओक के जंगल, बहती नदियां और बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां यात्रियों को आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ प्रकृति का अनूठा अनुभव देती हैं। यहां से चौखंबा, नीलकंठ, केदारडोम आदि पर्वत शिखर स्पष्ट दिखाई देते हैं, जिससे यह स्थान हिमालय की गोद में स्थित एक स्वर्गिक स्थल बन जाता है।

कब खुलता है मंदिर

मद्महेश्वर में पूजा दक्षिण भारत के रावल पुजारियों द्वारा की जाती है, जो कि आदि शंकराचार्य द्वारा नियोजित परंपरा का पालन करते हैं। यह मंदिर हर साल मई-जून में खुलता है और नवंबर में भारी बर्फबारी के कारण बंद हो जाता है। मंदिर बंद होने के बाद भगवान की डोली ऊखीमठ ले जाई जाती है, जहां शीतकाल में पूजा होती है।

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