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सुलझाने का धैर्य

एकदा
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कबीरदास अपने जीवनयापन के लिए बुनाई का काम करते थे। एक दिन वे चरखे पर सूत कात रहे थे। अचानक धागा उलझ गया। पास बैठा शिष्य बोला, ‘गुरुजी, यह धागा बहुत उलझा हुआ है। इसे काटकर नया धागा शुरू करना ही ठीक रहेगा।’ कबीर मुस्कुराए और बोले, ‘नहीं बेटा, धागा काटना आसान है, पर उलझे धागे को सुलझाना ही असली साधना है। जीवन भी ऐसा ही है। कठिनाइयों से भाग जाना सरल है, पर धैर्य रखकर उन्हें सुलझाना ही सच्चा ज्ञान है।’ शिष्य ने कहा, ‘पर गुरुजी, इसमें समय बहुत लगेगा।’ कबीर ने उत्तर दिया, ‘समय लगना बुरा नहीं, पर अधूरा छोड़ना बुरा है। धागे की तरह ही रिश्ते, समाज और आत्मा भी कभी उलझ जाते हैं। यदि हम उन्हें काट देंगे तो नया आरंभ संभव है, पर अधूरेपन का बोझ हमेशा रहेगा। जो धैर्य से सुलझाना सीख जाता है, वही सच्चा साधक है।’ यह सुनकर शिष्य ने समझा कि गुरु केवल चरखा नहीं चला रहे, बल्कि जीवन का गहरा ज्ञान दे रहे हैं। जीवन की कठिनाइयां उलझे धागों की तरह होती हैं। उन्हें काटकर भाग जाना आसान है, पर धैर्य और विवेक से सुलझाना ही सच्ची साधना और सफलता है।

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