दीपचंद भारद्वाज
मनुष्य जीवन ईश्वरीय वरदान है। ईश्वर ने मनुष्य को समस्त शक्तियों से सुसज्जित करके इस संसार रूपी रण में कर्मशील बनकर जीवन यापन के लिए भेजा है। बिना पुरुषार्थ के उन्नति की आकांक्षा स्वप्न मात्र है। यह एक स्मरणीय तथ्य है कि योग्यता, पुरुषार्थ के सहयोग से ही साधन बनते हैं। गई गुजरी परिस्थितियों में भी अनेक व्यक्तियों ने पुरुषार्थ के माध्यम से साधन जुटाकर स्वयं को संपन्न बनाया। योग्यता अकेली पर्याप्त नहीं होती। योग्यता के साथ-साथ पुरुषार्थ की संगति न हो तो वह योग्यता निरर्थक ही चली जाती है। पुरुषार्थहीन जीवन मनुष्य को निराशा, आलस्य व दुख के वातावरण में धकेल देता है। जो मनुष्य अपने शरीर का सार पुरुषार्थ रूपी तप में खर्च करते हैं, अपनी शक्तियों एवं क्षमताओं का समुचित उपयोग करते हैं, वही अपने जीवन को सफलता के आलोक से आलोकित करते हैं।
ऋग्वेद में कहा गया है ‘असश्चत: शतधारा अभिश्रिय:’ अर्थात सतत् परिश्रम करने वाले को सैकड़ों प्रवाहों से यश प्राप्त है। सक्रियता ही जीवन है और निष्िक्रयता मृत्यु के समान है। पुरुषार्थहीन होकर केवल मात्र परिस्थितियों का दास बन कर जीवन यापन करना अभिशाप के समान है। जीवन में निरंतर परिश्रम के मार्ग पर चलकर ही नये रास्ते खुलते हैं। केवल भाग्य को कोसने से कुछ हासिल नहीं होता। हमारे मनीषियों ने भी कहा है कि भाग्य और कुछ नहीं बीते कल का पुरुषार्थ ही आज का भाग्य बनता है। भाग्य रूपी समृद्धि भी पुरुषार्थ से ही फलती है। स्वर्णिम वर्तमान समय गंवाए बिना पुरुषार्थ का आश्रय लेना ही श्रेष्ठ है। पुरुषार्थी एवं सक्रिय मनुष्य की सहायता दैवी शक्तियां स्वयं करती हैं। प्रमादी एवं कर्महीन मनुष्य ईश्वरीय अनुकंपा से सर्वथा वंचित ही रहता है।
ऋग्वेद की ऋचा में कहा गया है- ‘इच्छन्ति देवा: सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति।’ दिव्य ईश्वरीय शक्ति भी सदैव पुरुषार्थी कर्मशील योद्धा का ही वरण करती है, जो केवल स्वप्नों के जगत में जीवन यापन करता है, ऐसे आलसी व्यक्ति से दिव्य शक्ति भी दूर ही रहती है। ऐसा व्यक्ति सदा ही ईश्वरीय अनुकंपा से वंचित रहता है। प्रसिद्ध विचारक स्वेट मार्डन ने भी कहा है – ‘आत्मा की सर्वोत्कृष्ट शक्तियों का विकास पुरुषार्थ से ही संभव है! ऐसा सजग पुरुषार्थी मनुष्य जिस दिशा में बढ़ता है, उसी में ख्याति प्राप्त करता चलता है।’
हमारे मनीषियों का भी यही चिंतन है कि लक्ष्मी कीर्ति पुरुषार्थ के अधीन है। भर्तृहरि जी ने नीति शतक में कहा है- ‘उद्योगी सिंह के समान पुरुषार्थी मनुष्य को ही भौतिक संपदा प्राप्त होती है।’ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इसी विषय में कहा है, ‘ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है। अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है।।’
मनुष्य की समस्त समस्याओं का समाधान पुरुषार्थ से अवश्य निकलता है। अपनी मुश्किलों तथा प्रतिकूलताओं का हल हम स्वयं हैं। पुरुषार्थी वीर मनुष्य ही इस धरा की भौतिक संपदा के आनंद का वास्तविक अधिकारी है। मनुष्य के व्यक्तित्व के उत्थान में पुरुषार्थ ही मुख्य घटक है। समस्त सुप्त शक्तियां पुरुषार्थ से ही जाग्रत होती हैं। इसी के माध्यम से मनुष्य अपने विविध उत्तरदायित्वों को निष्ठापूर्वक कर सकने में समर्थ बनता है। बौद्धिक, नैतिक, आध्यात्मिक उत्थान के लिए पुरुषार्थ अति आवश्यक है। हमारे ऋषियों ने मनुष्य की सभी अपेक्षाओं, आवश्यकताओं और उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही इस पुरुषार्थ सिद्धांत के पथ पर मानव को चलने का उपदेश देते हुए कहा है, ‘तू पुरुष है तो पुरुषार्थ कर। समस्त संपदा को निज चरणों में धर।’
पुरुषार्थ बिना मनुष्य जीवन नीरस और शिथिल हो जाता है, जिससे जीवन में हताशा, चिंता और निराशा का समावेश होता है। सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पुरुषार्थ ही वह चाबी है जिसके अवलंबन से समृद्धि का द्वार जीवन में खुलता है।