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ईश्वर की सर्वव्यापकता

एकदा
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द्वापर युग की बात है। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण, अपनी बहन द्रौपदी के साथ शाम की सैर कर रहे थे। द्रौपदी जी भगवान श्रीकृष्ण से बोली, 'भैया, मैंने तो सुना है कि आप हर जगह मौजूद रहते हैं। पर उस समय आप कहां थे, जब दुःशासन मेरा चीर हरण कर रहा था?’ श्रीकृष्ण पहले मुस्कराए और फिर उत्तर दिया, ‘बहन, जब दुःशासन तुम्हारा चीर हरण कर रहा था, तब तुम अपनी साड़ी को दोनों हाथों से पकड़कर बचने का स्वयं प्रयास कर रही थी। थोड़ी देर के प्रयासों के बाद जब तुम्हारा जोर नहीं चला, तो तुमने सोचा यहां सभा में मेरे पांच पति बैठे हैं, वह मेरी मदद अवश्य ही करेंगे। जब वे लोग भी कुछ न कर सके और उदासीनता से बैठे रहे। तब तुमने सोचा कि इस सभा में एक से बढ़कर एक शूरवीर हैं, ये लोग मेरी मदद करेंगे। जब वहां से भी तुम्हें निराशा हाथ लगी, तो तुमने अंत में दोनों हाथ उठाकर कहा, ‘हे ईश्वर मेरी इज्जत की रक्षा कीजिए। तब मुझे तुम्हारी लाज बचाने के लिए आना पड़ा और अन्ततः दुःशासन को थक कर बैठ जाना पड़ा। इस तरह कौरव अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाए।’ मैं तो हर जगह उपस्थित रहता हूं, पर मनुष्य मुझे पुकारता ही सबसे अंत में है। यहां पर भी जब तुमने पुकारा तो मैंने ही तुम्हारी लाज बचाई थी। श्री कृष्ण के इस जवाब को सुनकर, द्रोपदी बोली, ‘प्रभु, वास्तव में आप सब जगह मौजूद हैं।’

प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा

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