आचार्य रूपचन्द्र
भस्मासुर ने तप के बल पर शिव से यह वरदान मांग लिया कि जिसके भी सिर पर हाथ रखे, वह भस्म हो जाए। शिव ने तथास्तु तो कह दिया, लेकिन वे संभावित अनिष्ट को भी भांप गए। भस्मासुर ने सामने किसी को न देखकर अपना पहला प्रयोग शिव पर ही आजमाना चाहा। तब विष्णु को मोहिनी रूप धरकर भस्मासुर को रिझाने के लिए सामने आना पड़ा। भस्मासुर अपने ही जाल में फंस कर भस्म हो गया। अपने तप से वह शिवत्व का गुण भी प्राप्त कर सकता था, लेकिन कुप्रवृत्ति के वश में आ गया।
यह जीवन का एक अनुभूत सत्य है कि भीतर यदि शिव प्रकट नहीं हैं तो अपनी ही शक्ति अपने विनाश का कारण बन जाती है। वरदान भी अभिशाप बनकर जीवन को जला डालता है। शिवत्व के अभाव में मनुष्य को यदि शक्ति प्राप्त हो भी गई तो वह अपने तथा दूसरों के अमंगल की ही हेतु बनती है। आज की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हम प्रबुद्ध और समाजजीवी होने का ढिंढोरा पीटने के बजाय पहले भस्मासुर वाली मानसिकता को खत्म करें। हर विपरीत परिस्थिति में अपने आप से सहृदय होकर अवश्य पूछें कि हमें क्या करना चाहिए।
हमें वह दृष्टि चाहिए जो शिवत्व को सोए से जगा सके और हमें स्वतंत्रचेता बना सके। स्वतंत्रता की खोज आदिम समय से हो रही है। अध्यात्म की ज्योति का प्रकटन इसी खोज से हुआ है। यदि आदमी स्वतंत्र है तो दूसरे तंत्र की आवश्यकता ही नहीं है। यदि अपना तंत्र नहीं है तो दूसरा कोई न कोई तंत्र अराजकता और अनुशासनहीनता का भ्रम फैलाकर आपको नियंत्रित करने आएगा ही। इसलिए अध्यात्म एक दृष्टि देता है कि मनुष्य को खुद बदलना चाहिए।
भगवान महावीर से पूछा गया कि आप संयम और नियम की बात क्यों करते हैं? आदमी का जीवन तो उन्मुक्त भोग के लिए है। महावीर मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘श्रेष्ठ यही है कि तुम अपने से अपना अनुशासन साथ लो नहीं तो बाहर से किसी न किसी शक्ति का तुम पर शासन आएगा।’ इस कथन में जीवन का वह सत्य मौजूद है जो आध्यात्मिक चिंतन की तरफ ले जाता है। हम और आप भी अगर गहराई से विचार करें तो स्पष्टतः अनुभव आएगा कि अध्यात्म, संयम और अनुशासन के विकसित हुए बिना शक्ति मिलना बंदर के हाथ में तलवार आने या भस्मासुर वरदान मिलने जैसा होगा।
प्रस्तुति : अरुण योगी