दिव्यता, शुद्धि और आत्मबोध का मंत्र
गायत्री महामंत्र ‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’ का भावार्थ है कि हम उस प्राणस्वरूप, दु:खनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
संसार के अनेक ऋषि-मुनियों ने अपने जीवन में समस्त मंत्रों के मुकुटमणि गायत्री महामंत्र की साधना, जप और तप किया, और उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर इसकी महिमा का गुणगान किया है।
विश्वामित्र का कथन है कि गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। भगवान मनु का कथन है कि गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है। योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं कि गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है। इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है।
पाराशर कहते हैं कि समस्त जप सूक्तों तथा वेदमंत्रों में गायत्री महामंत्र परमश्रेष्ठ है। शंख ऋषि का मत है कि नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री ही है। शौनक ऋषि का मत है कि अन्य उपासनाएं चाहे करें या न करें, केवल गायत्री जप से ही द्विज जीवनमुक्त हो जाता है।
अत्रि मुनि कहते हैं कि गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। जो मनुष्य गायत्री तत्व को भली प्रकार समझ लेता है, उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।
महर्षि व्यास जी कहते हैं कि जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनाएं करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख है।
भारद्वाज ऋषि कहते हैं कि ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं; वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। चरक ऋषि कहते हैं कि जो ब्रह्मचर्यपूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घायु होता है।
नारद जी की उक्ति है कि गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है। जहां भक्ति रूपी गायत्री है, वहां श्री नारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिए।