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शक्ति की अभिव्यक्ति मां शीतला के रूप में

कड़ाधाम शक्तिपीठ
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कड़ाधाम का शीतला माता मंदिर पौराणिक शक्तिपीठों में से एक है, जहां श्रद्धालु आस्था, परंपरा और मनोकामना पूर्ति के लिए आते हैं। यहां की लोककथाएं, भक्तों की भंडारे और सांस्कृतिक मेलों से मंदिर की महत्ता और भी बढ़ जाती है।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित कुल 51 शक्तिपीठों पर प्रतिदिन करोड़ों श्रद्धालु श्रद्धा, आस्था और पारंपरिक ढंग से पूजा-अर्चना कर अपनी आकांक्षा प्रस्तुत करते हैं। तीर्थराज प्रयाग से सटे कौशाम्बी जनपद में स्थित कड़ाधाम का शीतला माता मंदिर भी उन शक्तिपीठों में शामिल है। यहां पूर्वी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई जिलों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु परिवार इस मंदिर में पूजा-अर्चना और रोट (आटे से बना प्रसाद) चढ़ाकर अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए आशीष मांगते हैं।

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देवी सती का पंजा

देश के जिन स्थानों पर देवी सती के अंग गिरे, उनका नामकरण उसी अंग के अनुसार किया गया है। पतित पावनी मां गंगा के पावन तट पर बसे कड़ाधाम के बारे में मान्यता है कि पहले यहां विशाल जंगल था, जिसका नाम कराकोटम वन था। इस जंगल में ही देवी सती के दाहिने हाथ का पंजा गिरा। ‘कर’ का भाग होने के कारण स्थान का नाम ‘करा’ पड़ा, जो बाद में अपभ्रंश रूप में ‘कड़ा’ के नाम से विख्यात हुआ। किवदंतियों के आधार पर दावा किया जाता है कि जंगल में देवी सती के दाहिने हाथ का पंजा और कड़ा (चूड़ी) गिरा था, जिसके आधार पर इस तीर्थ का नाम कड़ाधाम पड़ा।

स्थानीय लोग बताते हैं कि द्वापर युग में पांडव पुत्र भगवान युधिष्ठिर वनवास के समय यहां आए थे। उन्होंने इस शक्ति स्थल का दर्शन किया और यहीं पर माता का मंदिर तथा महाकालेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी।

सिद्धि देवी की मान्यता

मां शीतला का यह विख्यात मंदिर सदियों से शक्ति उपासना और मनोकामना सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं में अधिकांश संतान प्राप्ति, असाध्य रोगों से मुक्ति, गरीबी से निजात, भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति तथा पारिवारिक कलह से छुटकारा पाने की कामना लेकर आते हैं।

देवी के रूप में मान्यता

कड़ाधाम स्थित मंदिर में माता शीतला देवी की मूर्ति गर्दभ पर विराजमान है। मां के वाहन को यहां खर, खच्चर, गधा और वैशाख नंदन कहा जाता है। मूर्ति के समीप बना कुंड सदैव जल, दुग्ध, फलों आदि से भरा रहता है। यहां दर्शन के लिए आने वाले लोग अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर मंदिर में बने कुंड को जल अथवा दूध से भरते हैं, जिसमें पंचमेवा मिलाया जाता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘जलहरी’ कहा जाता है।

माता शीतला को शीतलता की देवी कहा जाता है, क्योंकि स्थानीय लोगों में मान्यता है कि चेचक या चिकनगुनिया जैसी बीमारियों में यदि श्रद्धालु ढाई दिन तक घर में साफ-सुथरे वातावरण में रहें और माता के कुंड के जल का आचमन और छिड़काव करें, तो शरीर में जलन से आराम मिलता है।

पूर्वांचल की कुलदेवी

पूर्वांचल यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश के लगभग दर्जनभर जनपदों में माता शीतला देवी को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है। अधिकांश परिवार अपने बच्चों के मुंडन संस्कार, उपनयन संस्कार, वैवाहिक संबंधों को तय करने, गोद भराई तथा नवविवाहित जोड़ों को मां का आशीर्वाद दिलाने के लिए इस देवीधाम में आते हैं। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शक्तिपीठ मां विंध्यवासिनी के विंध्याचलधाम से जुड़े पंडा समाज के लोग भी देवी को आराध्य मानते हैं तथा यहां पूजा-अर्चना के साथ प्रतिवर्ष विशाल भंडारे का आयोजन करते हैं।

गंगा-जमुनी विरासत की स्थली

स्थापित मान्यताओं में मां के नियमित दर्शन और पूजन के लिए सोमवार, शुक्रवार और मुंडन संस्कार के लिए बुधवार का दिन शुभ माना जाता है। धार्मिक मान्यता प्रचलित है कि यदि मां को जल्दी प्रसन्न करना है तो उन्हें झूला चढ़ाया जाए, जिस पर मां विराजमान होकर झूला झूलेंगी और प्रसन्न होकर मनोकामना शीघ्र पूर्ण करेंगी। इसी आस्था और विश्वास पर श्रद्धालु, जिनमें पूर्वांचल के श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होती है, मां को झूला चढ़ाते हैं। मां को श्रद्धालु दर्शन, पूजन के साथ प्रसाद के रूप में ‘रोट’ चढ़ाते हैं। रोट का प्रसाद स्थानीय ग्रामीण जीवन की सदियों पुरानी परंपरा है, जिसमें श्रद्धालु मंदिर के आसपास मिट्टी या ईंट के बने चूल्हे पर आटे की पूड़ी और हलवा तैयार करते हैं। श्रद्धालु नारियल, फल, चुनरी और गुड़हल के लाल फूल के साथ रोट का प्रसाद देवी को अर्पित करते हैं। इस मंदिर में आने वालों में हिंदू समाज के साथ ही मुस्लिम समुदाय के लोग भी हैं, जो अपनी मनोकामना लेकर यहां आते हैं।

मेलों की बहार

यहां वर्ष भर मेले चलते रहते हैं। प्रतिमाह सोमवार, शुक्रवार, सप्तमी के साथ ही प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या को यहां मेले का आयोजन होता है। ‘चैत्र नवरात्रि’ और ‘शारदीय नवरात्रि’ में बड़े मेलों का आयोजन होता है। ‘कार्तिक मास’ में दो दिवसीय मेला दिन-रात चलता रहता है। केवल ‘पौष मास’ में यहां मेलों का आयोजन नहीं होता।

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