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बदलाव के अगुवा

एकदा
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एक बार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने स्त्री शिक्षा के लिए ‘बालाबोधिनी’ नामक पत्रिका का प्रकाशन, संपादन तथा प्रसार आरंभ किया। वह घर-घर जाकर यह पत्रिका खुद वितरित किया करते थे। उनके कुछ सगे-संबंधी उनको समझाने लगे कि पैतृक संपत्ति को इस तरह एक मामूली पत्रिका के लिए बर्बाद कर रहे हो। संभल जाओ। मगर भारतेंदु अपने संकल्प पर अडिग थे। रूढि़ और अज्ञानता के कुचक्र में फंसी अपने समाज की हर महिला को शिक्षित करने का वह मन ही मन व्रत ले चुके थे। आज भी समूल नवजागरण की बात होती है तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बगैर यह विषय अधूरा रहता है। उस समय लोग जहां रुपये खर्च करने को अपव्यय या असंयम मानते थे, वहीं भारतेन्दु ने हिंदी को एक नया स्वरूप प्रदान किया। समाज को नये विचार दिये। मात्र पैंतीस साल का कुल जीवन जिया मगर नाटक, निबंध, रिपोर्ताज, डायरी, दोहा, ग़ज़ल, यात्रा संस्मरण जैसे नये-पुराने रूपों से हिंदी को उच्चादर्श तक पहुंचने वाले भी भारतेन्दु ही थे।

प्रस्तुति : पूनम पांडे

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