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कर्म ही भाग्य

एकदा
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एक धनी व्यक्ति मंदिर में पूजा करने गया। जब उसने मंदिर के बाहर अपने महंगे जूते उतारे, तो उसे चिंता हुई कि कहीं कोई उन्हें चुरा न ले। उसी समय उसकी नजर एक भिखारी पर पड़ी, जो मंदिर के बाहर बैठा था। धनी व्यक्ति ने उससे कहा, ‘भाई, ज़रा मेरे जूतों का ध्यान रखना, जब तक मैं पूजा करके लौटूं।’ भिखारी ने सिर हिलाकर हामी भर दी। मंदिर के अंदर पूजा करते समय, वह व्यक्ति सोचने लगा—‘हे भगवान! आपने ये संसार कितना असमान बनाया है। किसी के पास इतना धन है कि वो पैरों में भी हज़ारों के जूते पहनता है, और किसी के पास दो वक्त की रोटी तक नहीं।’ मन में भावुक होकर उसने सोचा, ‘बाहर जाकर इस भिखारी को सौ रुपये दूंगा। शायद इससे उसे थोड़ी राहत मिले।’ लेकिन जब वह पूजा करके बाहर निकला, तो वहां न तो उसके जूते थे, और न ही भिखारी। वह ठगा-सा महसूस करने लगा। थोड़ी देर इंतज़ार किया, पर भिखारी लौट कर नहीं आया। निराश होकर वह नंगे पांव घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने देखा कि फुटपाथ पर एक व्यक्ति पुराने जूते-चप्पल बेच रहा था। वहां उसे अपने वही महंगे जूते दिखाई दिए। उसने विक्रेता से पूछा, ‘ये जूते कहां से आए?’ विक्रेता बोला, ‘एक भिखारी इन्हें सौ रुपये में बेच गया।’ यह सुनकर वह व्यक्ति चौंका नहीं, बल्कि मुस्करा दिया और नंगे पैर ही घर की ओर चल दिया। अब उसे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे।

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