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मोह से मुक्त न्याय

एकदा
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माघ की कड़कड़ाती ठंड थी। काशी नरेश की रानी ‘करुणा' दासियों के साथ वरुणा नदी में नहाने गई थी। नहाते ही रानी ठंड से कांपने लगी। आस-पास सूखी लकड़ियां नहीं थीं। नदी के निकट कुछ झोपड़ियां थीं, जिनमें साधु-संत या दीन-दुखी लोग ठहरते थे। उस समय वे खाली थीं। रानी ने दासी से कहा, ‘इनमें से एक झोपड़ी में आग लगा दो। ठंड के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा है।’ दासी ने आग लगा दी, लेकिन तेज हवा के कारण आग एक झोपड़ी तक सीमित नहीं रही। देखते-देखते सभी झोपड़ियां जल गईं। रानी के राजभवन पहुंचने पर वे सभी लोग भी राजदरबार पहुंचे, जिनकी झोपड़ियां जली थीं। राजा ने यह बात सुनकर अन्तःपुर में जाकर रानी से कहा, ‘तुमने यह क्या किया? लोगों के घर क्यों जला दिए?’ रानी ने कहा, ‘उन घास-फूस के छप्परों को क्या आप घर कहते हैं? वे जल गए तो अच्छा ही हुआ।’ यह सुनकर महाराज ने दासी को आदेश दिया, ‘रानी के वस्त्र और आभूषण उतारकर उन्हें फटे-पुराने वस्त्र पहनाकर राजसभा में प्रस्तुत करो।’ तत्पश्चात न्यायासन पर बैठकर राजा ने रानी को संबोधित करते हुए कहा, ‘रानी जी! आपको राजभवन से निष्कासित किया जाता है। वे सभी घर, जिन्हें तुमने जलवा दिया है, भिक्षा मांगकर जब तुम उन्हें पुनः बनवा दोगी, तब तुम्हारा यह निष्कासन समाप्त होगा।’

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