एक बार धनी भक्त ने रामकृष्ण परमहंस को कीमती दुशाला भेंट किया। स्वामी जी ऐसी वस्तुओं के शौकीन नहीं थे लेकिन भक्त के आग्रह पर उन्होंने भेंट स्वीकार कर ली। उस दुशाले को वह कभी चटाई की तरह बिछाकर उस पर लेट जाते थे तो कभी कम्बल की तरह ओढ़ लेते थे। दुशाले का ऐसा उपयोग एक सज्जन को ठीक नहीं लगा। उसने स्वामीजी से कहा, ‘श्रीमान, यह तो बहुत मूल्यवान दुशाला है। इसका बहुत जतन से प्रयोग करना चाहिए। ऐसे तो यह बहुत जल्दी खराब हो जायेगा।’ परमहंस ने सहज भाव से उत्तर दिया, ‘जब सभी प्रकार की मोह-ममता को छोड़ दिया है तो इस कपड़े से कैसा मोह करूं? क्या अपना मन भगवान की ओर से हटाकर इस तुच्छ वस्तु में लगाना उचित होगा? ऐसी छोटी वस्तु की चिंता करके अपना ध्यान बड़ी बात से हटा देना कहां की बुद्धिमानी है?’ ऐसा कहकर उन्होंने दुशाले के एक कोने को पास ही जल रहे दीये की लौ से छुआकर थोड़ा-सा जला दिया और उस सज्जन से कहा, ‘लीजिये, अब यह दुशाला न तो मूल्यवान रहा और न सुन्दर। अब मेरे मन में इसे सहेजने की चिंता कभी पैदा नहीं होगी और मैं अपना सारा ध्यान भगवान की ओर लगा सकूंगा।’ वे सज्जन निरुत्तर हो गए।
प्रस्तुति : पूनम पांडे