संत च्वांगत्सु एक अन्धेरी रात में मरघट से गुजर रहा था। वह मरघट शाही खानदान का था। अचानक उसका पैर एक आदमी की खोपड़ी पर लग गया। फकीर घबरा गया। उसने वह खोपड़ी उठायी और घर लाकर उसके आगे हाथ-पांव जोड़ने लगा कि मुझे क्षमा कर दो। उसके मित्र इकट्ठे हो गये और कहने लगे, ‘पागल हो गये हो, इस खोपड़ी से क्षमा मांगते हो?’ च्वांगत्सु ने उत्तर दिया, ‘यह बड़े आदमी की खोपड़ी है। यह सिंहासन पर बैठ चुकी है। मैं इसलिए क्षमा मांगता हूं क्योंकि यह आदमी आज जीवित होता और मेरा पैर उसके सिर पर लग जाता तो पता नहीं मेरी क्या हालत बनाता?’ मित्रों ने कहा, ‘तुम बड़े पागल हो।’ च्वांगत्से ने कहा, ‘मैं पागल नहीं हूं। मैं तो यही संदेश देना चाहता हूं कि जो खोपड़ी कभी सिंहासन पर अहंकार से बैठती थी वही एक फकीर की ठोकर खा रही है और ‘उफ’ भी नहीं कर सकती। कहां गया सिंहासन? कहां गया अहंकार?’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी