धार्मिक सहिष्णुता और समानता के महान स्तंभ
इस शहादत का संदेश अत्यंत गहरा था। यह शहादत किसी धर्म को दूसरे से ऊंचा साबित करने के लिए नहीं थी, बल्कि हर व्यक्ति को अपनी मर्जी से अपने धर्म का पालन करने के अधिकार की रक्षा के लिए थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबारी कवि सेनापति की रचना ‘गुरु सोभा’ में लिखा है—गुरु साहिब ने पूरी सृष्टि को अपनी कृपा की चादर से ढक कर उसकी रक्षा की थी।
गुरु तेग बहादुर साहिब विश्व इतिहास में आध्यात्मिक दृढ़ता और मानवाधिकारों के प्रतीक के रूप में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। सन् 1675 में उनकी शहादत केवल इतिहास की एक घटना नहीं थी, बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता के लिए मानवता के संघर्ष में एक निर्णायक क्षण था।
गुरु साहिब का जन्म सन् 1621 में अमृतसर में हुआ। वे छठे पातशाह गुरु हरिगोबिन्द जी के सबसे छोटे सुपुत्र थे। बचपन से ही उन्होंने विनम्रता, साहस और आत्मचिंतन को जीवन का हिस्सा बना लिया था। जब वे चार वर्ष के थे, अपने बड़े भाई बाबा गुरदित्ताजी के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए सुंदर वस्त्र पहनकर तैयार खड़े थे। उसी समय पास ही एक बालक के रोने की आवाज़ सुनाई दी। पता चला कि उसके पास ठंड से बचने के लिए कपड़े नहीं थे। गुरु जी ने तुरंत अपने पहने हुए कीमती वस्त्र उतारकर उसे दे दिए। जब पिता गुरु हरगोबिंद जी को इस बात का पता चला, तो उन्होंने कहा, ‘जैसे आज इन्होंने एक गरीब का तन अपने वस्त्रों से ढका है, कल यही मज़लूमों की इज़्ज़त अपने तन की कुर्बानी देकर बचाएंगे।’ गुरु जी के यह वचन आगे चलकर सत्य सिद्ध हुए।
गुरु तेग बहादुर जी जब गुरगद्दी पर विराजमान हुए, उस समय बादशाह औरंगज़ेब के शासन में भारत धार्मिक असहिष्णुता के सबसे अंधकारमय दौर से गुजर रहा था। औरंगज़ेब ने बड़े पैमाने पर हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराने का आदेश दिया था। इस अत्याचार से त्रस्त कश्मीरी पंडितों का एक दल, पंडित कृपा राम जी की अगुवाई में आनंदपुर साहिब में गुरु तेग बहादुर साहिब के पास पहुंचा और बताया कि उनका तिलक और जनेऊ संकट में है। उन्होंने गुरु जी से अपने धर्म की रक्षा करने की प्रार्थना की। गुरु जी ने शरण आए कश्मीरी पंडितों की लाज रखते हुए यह ऐलान किया कि वे बादशाह से कहें कि यदि गुरु तेग बहादुर जी अपना धर्म बदल लें, तो हम स्वयं अपनी इच्छा से इस्लाम कबूल कर लेंगे।
यह एक असाधारण घटना थी। गुरु जी के इस निर्णय ने उनके गहरे नैतिक और सार्वभौमिक दृष्टिकोण को उजागर किया। उनका मानना था कि धार्मिक विश्वास किसी पर जबरदस्ती नहीं थोपे जाने चाहिए। हर व्यक्ति को अपने विश्वास और श्रद्धा के अनुसार अपने तरीके से धर्म का पालन करने का अधिकार है। हमारी उपासना की विधि चाहे उस से अलग क्यों न हो, पर उसके विश्वास की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। गुरु जी का यह विचार सिख धर्म के मूल सिद्धांत—समानता, न्याय और सभी धर्मों के सम्मान— को दर्शाता है।
इन सिद्धांतों को बनाए रखते हुए गुरु तेग बहादुर जी दिल्ली के लिए रवाना हो गए। वे आने वाली कठिनाइयों से पूरी तरह परिचित थे। उन्हें उनके तीन सिखों— भाई मती दास जी, भाई सती दास जी और भाई दयाल दास जी— समेत बंदी बना लिया गया। धर्म परिवर्तन करवाने के लिए उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। धन-संपत्ति का प्रलोभन भी दिया गया। पर गुरु जी और उनके सिख झुके नहीं। तीनों सिख गुरु जी के इस पवित्र उपदेश पर अडिग रहे — ‘जो व्यक्ति किसी को भय नहीं देता और किसी के भय से डरता नहीं, वही सच्चे आत्मिक जीवन की समझ रखने वाला होता है।’
ज़ुल्म की सारी हदें पार कर दी गईं। गुरु जी की आंखों के सामने भाई मती दास जी को आरे से चीर दिया गया, भाई सती दास जी को रुई में लपेटकर आग लगा दी गई, और भाई दयाल दास जी को पानी के बड़े देगों (बर्तनों) में उबाल दिया गया। सिखों की शहादतें देखकर भी गुरु जी अडिग रहे। अंततः गुरु तेग बहादुर साहिब जी को दिल्ली के चांदनी चौक में शहीद कर दिया गया।
इस शहादत का संदेश अत्यंत गहरा था। यह शहादत किसी धर्म को दूसरे से ऊंचा साबित करने के लिए नहीं थी, बल्कि हर व्यक्ति को अपनी मर्जी से अपने धर्म का पालन करने के अधिकार की रक्षा के लिए थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबारी कवि सेनापति की रचना ‘गुरु सोभा’ में लिखा है—गुरु साहिब ने पूरी सृष्टि को अपनी कृपा की चादर से ढक कर उसकी रक्षा की थी।
गुरु जी की शहादत ने उनके सुपुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी को खालसा पंथ की स्थापना के लिए प्रेरित किया। यह शहादत वह बीज बन गई जिससे निडरता, दया, न्याय, सेवा और सामाजिक जिम्मेदारी के गुण फले-फूले।
आज जब हम उनका 350वां शहीदी दिवस मना रहे हैं, दुनिया में असहिष्णुता और हिंसा का वातावरण व्याप्त है। गुरु तेग बहादुर साहिब का जीवन हमें याद दिलाता है कि दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना ही आध्यात्मिकता का सर्वोच्च रूप है।
